मैं तब के वक़्त को याद करना चाहता हूं जब मेरी मां के मैं और मेरी छोटी बहन बस दो ही बच्चे थे। छोटी बहिन
आठ या नौ महीने की और मैं शायद साढ़े तीन या चार साल का था। एक दोपहरबाद मेरी मां रसोई में बैठी जूठे बर्तनों का ढेरा मांज रही थी, मैं उसके पीछे कमरें में बैठा याद नहीं क्या कर रहा था कि पलंग पर पड़ी मेरी दुधमुंही बहन ने करवट बदली और धड़ाम पलंग से नीचे जाकर गिरी।
वो पलंग ऐसा था कि उसके पायों के नीचे दो दो ईंटों की सपोर्ट थी ताकि पलंग फर्श से कदरन ऊंचा हो जाए और नीचे की जगह को स्टोरेज के लिए इस्तेमाल किया जा सके।
यानी बहन न सिर्फ़ गिरी, कदरन ज्यादा ऊंचाई से गिरी।
‘‘चाई!’’-मैंने शोर मचाया-‘‘मुन्नी डिग पयी ! मुन्नी डिग पयी !’’
‘चाई ने क्या किया?
बर्तन मांजने बंद कर दिए? हाहाकार करती मुन्नी को उठाने दौड़ी?
नहीं।
उसने मुड़कर भी न देखा, वो निर्विकार, बदस्तूर बर्तन मांजती रही और जब तक न उठी जब तक कि उसका वो काम ख़त्म न हो गया।
मुन्नी की बद्क़िस्मती देखिए कि वो जहां गिरी, वहां उसकी कांच की दूध की बोतल पड़ी थी, उसका सिर बोतल से टकराया, बोतल फूट गयी और कांच उसके सर में धंस गया।
मुन्नी बोतल पर गिरी थी, शीशा उसके सर में धंस गया था, जख्म से खून बह रहा था, ये बातें नीमअंधेरे में फौरन मेरी तवज्जो में नहीं आयी थीं वर्ना मैं उस बाबत भी कोई होहल्ला मचाता तो मां शायद उतनी निर्विकार, निर्लिप्त न रह पाती।
आखिर जब मैं मुन्नी के करीब गया तो वो बात उजागर हुई।
मुन्नी के सिर से खून बह रहा था, मैं कभी उसको कभी मां की पीठ को देख रहा था, मां अपना काम कर रही थी जो सबसे ज़रुरी था, जो बीच में नहीं छोड़ा जा सकता था।
आखिर उसका काम खत्म हुआ तो उसने उठकर जमीन पर पड़ी रोते रोते ही सो गयी मुन्नी की सुध ली। सुध क्या ली, फर्श से उठाया, सिर का खून पोंछा और वापिस पलंग पर लिटा दिया, अलबत्ता इस बार ये एहतियात बरती कि पहलू के साथ एक तकिये की रोक लगा दी ताकि दोबारा न गिर जाए।
-सुरेंद्र मोहन पाठक
(अपनी आत्मकथा ‘न बैरी न कोई बेगाना’ में)
आठ या नौ महीने की और मैं शायद साढ़े तीन या चार साल का था। एक दोपहरबाद मेरी मां रसोई में बैठी जूठे बर्तनों का ढेरा मांज रही थी, मैं उसके पीछे कमरें में बैठा याद नहीं क्या कर रहा था कि पलंग पर पड़ी मेरी दुधमुंही बहन ने करवट बदली और धड़ाम पलंग से नीचे जाकर गिरी।
वो पलंग ऐसा था कि उसके पायों के नीचे दो दो ईंटों की सपोर्ट थी ताकि पलंग फर्श से कदरन ऊंचा हो जाए और नीचे की जगह को स्टोरेज के लिए इस्तेमाल किया जा सके।
यानी बहन न सिर्फ़ गिरी, कदरन ज्यादा ऊंचाई से गिरी।
‘‘चाई!’’-मैंने शोर मचाया-‘‘मुन्नी डिग पयी ! मुन्नी डिग पयी !’’
‘चाई ने क्या किया?
बर्तन मांजने बंद कर दिए? हाहाकार करती मुन्नी को उठाने दौड़ी?
नहीं।
उसने मुड़कर भी न देखा, वो निर्विकार, बदस्तूर बर्तन मांजती रही और जब तक न उठी जब तक कि उसका वो काम ख़त्म न हो गया।
मुन्नी की बद्क़िस्मती देखिए कि वो जहां गिरी, वहां उसकी कांच की दूध की बोतल पड़ी थी, उसका सिर बोतल से टकराया, बोतल फूट गयी और कांच उसके सर में धंस गया।
मुन्नी बोतल पर गिरी थी, शीशा उसके सर में धंस गया था, जख्म से खून बह रहा था, ये बातें नीमअंधेरे में फौरन मेरी तवज्जो में नहीं आयी थीं वर्ना मैं उस बाबत भी कोई होहल्ला मचाता तो मां शायद उतनी निर्विकार, निर्लिप्त न रह पाती।
आखिर जब मैं मुन्नी के करीब गया तो वो बात उजागर हुई।
मुन्नी के सिर से खून बह रहा था, मैं कभी उसको कभी मां की पीठ को देख रहा था, मां अपना काम कर रही थी जो सबसे ज़रुरी था, जो बीच में नहीं छोड़ा जा सकता था।
आखिर उसका काम खत्म हुआ तो उसने उठकर जमीन पर पड़ी रोते रोते ही सो गयी मुन्नी की सुध ली। सुध क्या ली, फर्श से उठाया, सिर का खून पोंछा और वापिस पलंग पर लिटा दिया, अलबत्ता इस बार ये एहतियात बरती कि पहलू के साथ एक तकिये की रोक लगा दी ताकि दोबारा न गिर जाए।
-सुरेंद्र मोहन पाठक
(अपनी आत्मकथा ‘न बैरी न कोई बेगाना’ में)