व्यंग्य
महापुरुषों को मैं बचपन से ही जानने लगा था। 26 जनवरी, 15 अगस्त और अन्य ऐसेे त्यौहारों पर स्कूलों में जो मुख्य या विशेष अतिथि आते थे, हमें उन्हींको महापुरुष वगैरह मानना होता था। मुश्क़िल यह थी कि स्कूल भी घर के आसपास होते थे और मुख्य अतिथि भी हमारे आसपास के लोग होते थे। मैं अकसर उनसे बचबचाकर निकलता था। बाद में मैं यह देखकर हैरान-परेशान होता था कि इनकी पहुंच कहां-कहां तक है, स्कूल में भी पहुंच जाते हैं। इनके पीछे गांधी, पटेल, नेहरु और शास्त्री आदि के फ़ोटो टंगे रहते थे। ये लोग अहिंसा वगैरह पर भाषण देते थे। हांलांकि सड़क पर इनके सामने से निकलते हुए डर लगा रहता था कि कहीं किसी बात पर (या बिना बात पर ही) थप्पड़ न मार दें। तब मैं सोचता था कि अख़बार, रेडियो और टीवी पर जो महापुरुष दिखाते हैं, ये कुछ राष्ट्रीय स्तर के महापुरुष होते होंगे। उस वक़्त मुझे राष्ट्रीय स्तर के बारे में ठीक से पता नहीं था। अब तो मुझे हर स्तर पर सभी तरह के स्तरों का पता है कि किसी भी स्तर का किसी स्तर पर भी कोई स्तर नहीं है।
लेकिन उस वक़्त पता होता तो मैं बड़ा कैसे होता !? तब शायद मुझे बड़ा होने से ही इंकार करना पड़ता। अब तो मैं बड़े लोगों को थोड़ा धन्यवाद भी दे सकता हूं क्योंकि मैं सबसे ज़्यादा उन्हीं की वजह से हंसता हूं। इसके अलावा कई छोटे लोग भी बड़े बनने की कोशिश में लगे रहते हैं। उनकी कोशिशें भी मज़ेदार होतीं हैं। जो संघर्ष के वक़्त इतना हंसाते हैं वो बड़ा होकर कितना हंसाएंगे। अकसर लोग बड़े होने के बाद भी मेरी उम्मीदों पर खरे उतरते हैं।
मैं भी बड़ा बनने के चक्कर में कई बार घर से बाहर निकला। पर हर बार आधे रास्ते से ही लौट आया। क्योंकि हर बार मुझे यह लगा कि मैं कहीं जा नहीं रहा बल्कि आ रहा हूं, कहीं चढ़ नहीं रहा बल्कि गिर रहा हूं, कहीं पहुंच नहीं रहा बल्कि लौट रहा हूं। हर बार मुझे लगा कि कहीं पहुंचने के लिए अगर लौटना पड़ता है, बड़े होने के लिए अगर छोटा होना पड़ता है, तो पहुंच के करना क्या है !? लौट ही जाते हैं।
उसके बाद मैं तरह-तरह के छोटे-बड़े लोगों से मिलने लगा। ख़ासकर जब भी मैं बड़े लोगों से मिला और बाद में उनकी हरक़तों का विश्लेषण किया (जिसमें कई साल ख़राब हो गए) तो अंततः मैंने पाया कि मैं ख़ामख़्वाह ही ख़ुदको छोटा समझता रहा, मैं तो बचपन से ही काफ़ी बेहतर था।
इसके बाद मुझमें सचमुच का आत्मविश्वास आ गया (जिसे कई लोग पागलपन भी समझ लेते हैं)। अब मैं तथाकथित छोटे लोगों की चिंता भले कर लूं पर तथाकथित बड़े की चिंता रत्तीभर भी नहीं करता। क्योंकि मुझे मालूम है कि ये बेचारे आत्मविश्वास और सोच की कमी व अहंकार(मैं) और हीनभावना की अधिकता की वजह से बड़े बनते हैं। अगर आत्मविश्वास, संवेदना, समझ और नीयत ठीक हो तो आदमी को बड़ा बनने की कोई ज़रुरत ही नहीं होती। मैं इसका तर्कों, तथ्यों और उदाहरणों के साथ खुला विश्लेषण कर सकता हूं। पर ऐसा करने पर कई बड़े लोग सदमे में आ जाएंगे, उन्हें अपने बड़ेपन पर शक़ होने लगेगा। एक साथ इतने सारे लोगों को इतना बड़ा झटका देना ठीक नहीं है। हम लोग एक साथ इतने सारे सच के आदी नहीं हैं। इतने तो क्या हम तो कितने के भी आदी नहीं हैं।
इसलिए ऐसे काम मैं धीरे-धीरे करता हूं।
मुझे कौन-सा बड़ा आदमी बनना है।
-संजय ग्रोवर
12-03-2017
( प्रसिद्ध व्यक्ति से एक अनपेक्षित बातचीत )
महापुरुषों को मैं बचपन से ही जानने लगा था। 26 जनवरी, 15 अगस्त और अन्य ऐसेे त्यौहारों पर स्कूलों में जो मुख्य या विशेष अतिथि आते थे, हमें उन्हींको महापुरुष वगैरह मानना होता था। मुश्क़िल यह थी कि स्कूल भी घर के आसपास होते थे और मुख्य अतिथि भी हमारे आसपास के लोग होते थे। मैं अकसर उनसे बचबचाकर निकलता था। बाद में मैं यह देखकर हैरान-परेशान होता था कि इनकी पहुंच कहां-कहां तक है, स्कूल में भी पहुंच जाते हैं। इनके पीछे गांधी, पटेल, नेहरु और शास्त्री आदि के फ़ोटो टंगे रहते थे। ये लोग अहिंसा वगैरह पर भाषण देते थे। हांलांकि सड़क पर इनके सामने से निकलते हुए डर लगा रहता था कि कहीं किसी बात पर (या बिना बात पर ही) थप्पड़ न मार दें। तब मैं सोचता था कि अख़बार, रेडियो और टीवी पर जो महापुरुष दिखाते हैं, ये कुछ राष्ट्रीय स्तर के महापुरुष होते होंगे। उस वक़्त मुझे राष्ट्रीय स्तर के बारे में ठीक से पता नहीं था। अब तो मुझे हर स्तर पर सभी तरह के स्तरों का पता है कि किसी भी स्तर का किसी स्तर पर भी कोई स्तर नहीं है।
लेकिन उस वक़्त पता होता तो मैं बड़ा कैसे होता !? तब शायद मुझे बड़ा होने से ही इंकार करना पड़ता। अब तो मैं बड़े लोगों को थोड़ा धन्यवाद भी दे सकता हूं क्योंकि मैं सबसे ज़्यादा उन्हीं की वजह से हंसता हूं। इसके अलावा कई छोटे लोग भी बड़े बनने की कोशिश में लगे रहते हैं। उनकी कोशिशें भी मज़ेदार होतीं हैं। जो संघर्ष के वक़्त इतना हंसाते हैं वो बड़ा होकर कितना हंसाएंगे। अकसर लोग बड़े होने के बाद भी मेरी उम्मीदों पर खरे उतरते हैं।
मैं भी बड़ा बनने के चक्कर में कई बार घर से बाहर निकला। पर हर बार आधे रास्ते से ही लौट आया। क्योंकि हर बार मुझे यह लगा कि मैं कहीं जा नहीं रहा बल्कि आ रहा हूं, कहीं चढ़ नहीं रहा बल्कि गिर रहा हूं, कहीं पहुंच नहीं रहा बल्कि लौट रहा हूं। हर बार मुझे लगा कि कहीं पहुंचने के लिए अगर लौटना पड़ता है, बड़े होने के लिए अगर छोटा होना पड़ता है, तो पहुंच के करना क्या है !? लौट ही जाते हैं।
उसके बाद मैं तरह-तरह के छोटे-बड़े लोगों से मिलने लगा। ख़ासकर जब भी मैं बड़े लोगों से मिला और बाद में उनकी हरक़तों का विश्लेषण किया (जिसमें कई साल ख़राब हो गए) तो अंततः मैंने पाया कि मैं ख़ामख़्वाह ही ख़ुदको छोटा समझता रहा, मैं तो बचपन से ही काफ़ी बेहतर था।
इसके बाद मुझमें सचमुच का आत्मविश्वास आ गया (जिसे कई लोग पागलपन भी समझ लेते हैं)। अब मैं तथाकथित छोटे लोगों की चिंता भले कर लूं पर तथाकथित बड़े की चिंता रत्तीभर भी नहीं करता। क्योंकि मुझे मालूम है कि ये बेचारे आत्मविश्वास और सोच की कमी व अहंकार(मैं) और हीनभावना की अधिकता की वजह से बड़े बनते हैं। अगर आत्मविश्वास, संवेदना, समझ और नीयत ठीक हो तो आदमी को बड़ा बनने की कोई ज़रुरत ही नहीं होती। मैं इसका तर्कों, तथ्यों और उदाहरणों के साथ खुला विश्लेषण कर सकता हूं। पर ऐसा करने पर कई बड़े लोग सदमे में आ जाएंगे, उन्हें अपने बड़ेपन पर शक़ होने लगेगा। एक साथ इतने सारे लोगों को इतना बड़ा झटका देना ठीक नहीं है। हम लोग एक साथ इतने सारे सच के आदी नहीं हैं। इतने तो क्या हम तो कितने के भी आदी नहीं हैं।
इसलिए ऐसे काम मैं धीरे-धीरे करता हूं।
मुझे कौन-सा बड़ा आदमी बनना है।
-संजय ग्रोवर
12-03-2017
( प्रसिद्ध व्यक्ति से एक अनपेक्षित बातचीत )