पुरस्कार क्यों लिए-दिए जाते हैं, इसपर किसीने भी सवाल नहीं उठाया, कोई उठाएगा इसकी उम्मीद भी न के बराबर ही है।
इस देश में लेखकों की रचनाएं, संपादक और प्रकाशक, चाहे वे वामपंथीं हों या संघी, किस आधार पर छापते हैं, इसपर भी सवाल कम ही उठते हैं, कम ही उठेंगे।
एक बहस में देखा कि यह सवाल उठानेवाले लोग तो थे कि चौरासी के दंगों पर किसीने क्यों पुरस्कार नहीं लौटाया (और यह बिलकुल जायज़ सवाल है) मगर दलित वर्ग जिनके ऊपर आए दिन अत्याचार होता है, का कोई प्रतिनिधि वहां दिखाई नहीं दिया। बुलाया ही नहीं गया होगा।
यह सवाल भी नहीं उठा कि एक सरकार से लिए गए पुरस्कार दूसरी सरकार को कैसे लौटाए जा सकते हैं !?
क्या आप मानते हैं सभी सरकारें एक जैसी होतीं हैं ? एक ही होती हैं ? फ़िर तो सभी सरकारों को एक ही माना जाए, और तब तो स्पष्ट है कि पुरस्कार किसी भी सरकार से नहीं लेने चाहिए। तब तो पूरे देश में इन्हें सार्वजनिक घोषणा करनी चाहिए कि हम सरकार से पुरस्कार नहीं लेंगे।
वैसे तो साहित्यकार को किसीसे भी पुरस्कार क्यों लेने चाहिए ? क्या कोई इनके घर अपील करने गया था कि आप ज़रुर लेखक बनना, वरना हम जी नहीं पाएंगे, आत्महत्या कर लेंगे !? बहुत सारे लोग हैं भारत में जो दिन-भर काम करते हैं, मज़दूरी करते हैं, मैला ढोते हैं, क्लर्क हैं, सब्ज़ी बेचते हैं, खेती करते हैं...... कोई भी तो पुरस्कार नहीं मांगता, फ़िर साहित्यकार ऐसा क्या किए दे रहे हैं !? विदशी लेखकों को कोट कर-करके अख़बारों से हज़ारों के चेक ले लेते हैं, मेरी समझ में तो अगर स्वाभिमान और ईमान है तो वो पैसा भी वापिस करना चाहिए जो दूसरों के लेखन को अपना बना या बताकर ऐंठा गया है। और आप जो नौकरियां और व्यवसाय करते हैं वो आपको पूरा नहीं पढ़ता क्या ? आपको क़लम-पैन-निक्कर-कमीज़ सब सरकार से क्यों चाहिए !?
ये सवाल कोई नहीं उठाएगा। ज़ाहिर है कि पुरस्कार और मुफ़्त में मिलनेवाली सभी सुविधाओं का लालच सभी दलों के लिक्खाड़ों का बिलकुल एक जैसा है। ज़ाहिर है कि इन्हें आगे भी पुरस्कार और बाक़ी सभी सुविधाएं लेनी हैं और ये उसी अंदाज़ में बात भी कर रहे हैं। इनमें से कुछ लोग धर्म पर कुछ बोलने वालों पर लाठी लेकर दौड़ पड़ते हैं तो कुछ धर्मनिरपेक्षता पर कुछ बोलने पर। दोनों (या तीनों या चारों.....) की अपने नेताओं, महापुरुषों, आयकनों आदि को लेकर भक्ति का स्तर बिलकुल एक जैसा है। यहां सोचने की बात है कि धर्म की तो सभी चालाक़ियों से हम परिचित हैं (और नास्तिक ग्रुप में हमने इसके खि़लाफ़ नये से नये तर्क दिए हैं) मगर धर्मनिपेक्षता पर पर्याप्त बातचीत हमने क़तई नहीं की है। अगर मार्क्स ने कहा कि धर्म अफ़ीम का नशा है तो क्या किसी एक धर्म के लिए कहा होगा !? नशे का अर्थ बेहोशी और बुराई के अलावा और क्या हो सकता है ? अगर सभी धर्म बुरे हैं, हास्यास्पद हैं तो धर्मनिरपेक्षता की क्या ज़रुरत हुई !? फिर तो एक बुराईनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक गुंडानिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक अंधविश्वासनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक कट्टरपंथनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक कालाजादूनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक कचरानिरपेक्षता भी होनी चाहिए....
सही बात यह है कि जिस तरह साकार भगवान से आगे की चालाक़ी निराकार भगवान है उसी तरह धर्म से आगे की चालाक़ी धर्मनिरपेक्षता है।
इस नज़रिए से सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि जो लोग आर एस एस को कट्टरपंथी (जोकि आर एस एस सौ प्रतिशत है) कहकर प्रगतिशील बनना चाहते हैं, क्या ख़ुद वे वाक़ई प्रगतिशील हैं ?
ये बहसें किसी शादी में जमा हुए रिश्तेदारों की अंत्याक्षरी जैसी क्यों लग रहीं हैं !?
इन सारी बहसों में एक ही पक्ष को बुलाया जा रहा है जो कि पुरस्कार का समर्थक है। दूसरा पक्ष जो पुरस्कार का विरोधी हो सकता है, उसका तो दूर-दूर तक नामोनिशान तक नहीं है।
19-10-2015
2.
सवाल यह है कि हमारे तथाकथित प्रगतिशीलों को प्रगतिशीलता के नाम पर बार-बार आर एस एस का संदर्भ क्यों लाना पड़ता है!? जहां तक मुझे याद आता है, जब तक मैं विवाह और इसी तरह के अन्य समारोहों में जाता था, लोग अपनी मर्ज़ी से सारे रीति-रिवाज़ किया करते थे। मैंने तो कभी नहीं देखा कि कोई आर एस एस या कोई राजनेता किसी पर दहेज लेने के लिए दबाव डाल रहा हो। क्या अंगूठा काटनेवाले द्रोणाचार्य को नायक की तरह हमारी पढ़ाई की क़िताबों में आर एस एस ने घुसाया ? उस वक़्त तो कांग्रेस और वामपंथ के ही हाथों में सब कुछ था। उन्हें क्यों नहीं हैरानी या आपत्ति हुई जब कबीरदास की जीवनी में लाश पर से कपड़ा हटाने पर फूल निकल आए ?
उस वक़्त मैं वामपंथ और वामपंथी बुद्धिजीवियों से प्रभावित हुआ करता था जब बाबा रामदेव मशहूर हुए। कम्युनिस्ट नेत्री वृंदा करात ने रामदेव के खि़लाफ़ कोई मामला उठाया। जब सभी न्यूज़-चैनलों पर बहस गर्म थी और रामदेव कह रहे थे कि इनका क्या है, ये तो हैं ही नास्तिक...तो मैं सोच रहा था कि अब कम्युनिस्ट दमदार तार्किक जवाब देंगे, अच्छा मौक़ा है सारे राष्ट्र को अपने बारे में बताने का...। मगर मुझे यह देखकर भारी निराशा हुई कि वे टीवी स्क्रीन से ऐसी ग़ायब हुईं कि महीनों तक नज़र नहीं आईं। अब तो ख़ैर मेरा चीज़ों को समझने का ढंग काफ़ी बदल गया है मगर उस वक़्त दुखी होना स्वाभाविक था।
वामपंथियों ने नास्तिकता के संदर्भ में कोई ढंग की कोशिश की हो, मुझे तो नहीं लगता। पं. बंगाल में 20-30 साल ज्योति बसु मुख्यमंत्री रहे, उस दौरान वहां धर्म और अंधविश्वास को लेकर समाज/लोगों की सोच में कितना परिवर्तन आया, पता लगाना चाहिए।
एक वक़्त तक बहुत-सारे न्यूज़- चैनलों पर वामपंथ का प्रभाव बताया जाता रहा मगर कहीं भी नास्तिकता का नाम तक सुनने में नहीं आता था तो यह किसकी ग़लती रही ? यह किस तरह की प्रगतिशीलता रही ?
प्रगतिशीलता का इनका दायरा तो इसीसे समझा जा सकता है कि पीके नाम की मनोरंजक फ़िल्म को भारत के तथाकथित प्रगतिशीलों ने एक महान क्रांतिकारी फ़िल्म की तरह पेश किया जबकि प्रगतिशीलता, बदलाव और अंधविश्वास कम करने के संदर्भ में फ़िल्म का अंत क़तई शर्मनाक़ था।
अब आप लोग ख़ुद सोचें कि ये लोग प्रगतिशीलता के नाम पर एक भ्रम को ही चलाए रखना चाहते हैं या असली प्रगतिशीलता से डरते हैं ? समस्या क्या है ? क्या आर एस एस की आड़ लेने और लेते रहने से समस्याएं हल हो जाएंगी ?
प्रगतिशीलता को लेकर इनकी नीयत क्या इसीसे नहीं समझी जा सकती कि इनके पसंदीदा केजरीवाल मंच पर चढ़ते ही भगवान-भगवान, चमत्कार-चमत्कार करना शुरु कर देते हैं। ऐसे में आर एस एस से तुलना कर-करके आप कब तक अपनी तसल्ली करते रहोगे ?
अभी-अभी पढ़ा कि श्री ग़ुलज़ार ने कहा है कि लेखक क्यों राजनीति करेंगे, लेखक तो समाज के ज़मीर को संभालते हैं।
क्या आपको लगता है कि ग़ुलज़ार की इस बात में किसी तरह का तर्क भी है !? क्या ग़ुलज़ार यह मानते हैं कि सभी लेखक बिलकुल एक जैसे होते हैं !? फ़िर तो सभी लेखकों को ग़ुलज़ार की तरह फ़िल्मों में ही लिखना चाहिए, उतना ही पैसा कमाना चाहिए। तर्क और आकाशवाणी में आखि़र कुछ तो फ़र्क होना चाहिए ? क्या ग़ुलज़ार साहब ने लेखकों के वे संस्मरण नहीं पढ़े हैं जिनमें वे ख़ुद ही एक-दूसरे की टांग-खिंचाई, धकेला-धकेली के बारे में लिखते रहते हैं। अगर सभी लेखक एक जैसे महान होते हैं तो उदयप्रकाश ने ‘पीली छतरीवाली लड़की’ और ‘मोहनदास’ में किन ब्राहमणवादी महानुभावों का वर्णन/ज़िक्र किया है ?
अगर सभी लेखक एक ही जैसे हैं तो संघी लेखकों और वामपंथी लेखकों का झगड़ा क्या है !?
(अगर कोई कहता कि मौक़ापरस्ती और मुफ़्त की सुविधाओं/पुरस्कारों के, मशहूरी की हवस के मामले में लेखक एक जैसे ‘महान’ हैं तो ज़रुर विचार किया जा सकता था।)
24-10-2015
3.
लेखक भी लालची होते हैं, कट्टरपंथी होते हैं, बेईमान होते हैं, राजनीति करते हैं...... ठीक वैसे ही जैसे व्यापारी होते हैं, राजनेता होते हैं या अन्य कोई भी इंसान होता है।
बिना किसी तार्किक आधार के आप लेखकों को मसीहा, देवता, महान बनाएंगे और फ़िर यह भी जताएंगे कि लेखकों को सरस्वतीपुत्र बतानेवाले ब्राहमणवाद, कट्टरपंथ और आर एस एस से आप अलग हैं!? क्या बात है !?
तथ्य और तर्क के बिना लेखकों, कलाकारों, गायकों, संगीतकारों को पवित्र और महामानव बनाने की कोशिशें, बाबाओं के भगवान बनकर मौज करने या फ़िल्मस्टारों की एक गढ़ी गई इमेज के ज़रिए ऐश करने की मानसिकता से किस तरह अलग हैं ? लेखकों को ख़ामख़्वाह सबके सर पर बिठाने के प्रयत्न जातिवादी और श्रेष्ठतावादी मानसिकता का ही एक नमूना है, और कुछ भी नहीं है।
और बाबाओं पर निशाना साधने में भी पूरी चालाक़ी बरती जाती है। कुछ ख़ास वर्गों से संबंधित बाबाओं पर वह ब्राहमणवाद आधुनिकता/प्रगतिशीलता का चोला पहनकर हमले करता है जिसके द्वारा रचित तथाकथित अध्यात्म से ही बाबावाद का जन्म हुआ। जिनके लोग चाहे आर एस एस में हों चाहें वामपंथ में, हर वक़्त चालू धर्मों और वर्णों को बचाने में सारी जान लगाए रहते हैं। वरना एक वह भी फ़ोटो जगह-जगह देखा गया जिसमें सफ़ेदवस्त्रधारी साईंबाबा की मृतदेह शीशे के चमकते बक्से में रखी थी और श्रीमती सोनिया गांधी, सचिन तेंदुलकर, सुनील गावस्कर जैसे ‘प्रगतिशील‘ और ‘एडुकेटेड’ लोग वहां श्रद्धारत बैठे थे। ये वे साईंबाबा थे जो लोगों को आर्शीवाद स्वरुप सफ़ेद पाउडर और सफ़ेद गोले अपनी बाहों और मुंह से निकाल-निकालकर बांटते थे। इन्होंने अपने मुंह से कभी एक शब्द नहीं बोला था। क्या सफ़ेद कपड़ों और ‘एडुकेटेड’ भक्तों की वजह से इन्हें प्रगतिशील माना जाए ? क्या बाबाओं और उनकी कट्टरताओं और अंधविश्वासों में फ़र्क़ उनके कपड़ों के रंग या भक्तों की इलीटनेस में फ़र्क़ के आधार पर किया जाएगा ? क्या दाढ़ी और बालों से आदमी के चरित्र का पता लगाया जा सकता है ? क्या इस समाज में क्लीनशेवन बाबा और बाबियां घर-घर और चैनल-चैनल नहीं बैठे हुए हैं ? ये सबके सब अपना अब तक का सारा किया-धरा छुपाकर सारा दोष एक-दो लोगों पर मढ़ने की कोशिश कर रहे हैं जैसे एकाध आदमी ने इस देश में चला आ रहा सारा पाखंड पैदा किया हो!? करवाचौथ भी उसी ने बनाया हो और एकलव्य का अंगूठा भी उसीने काटा हो। यह सिवाय मौक़ापरस्ती, ग़ैरज़िम्मेदारी और अपना दोष दूसरे के सर मढ़ने के अलावा कुछ भी नहीं है। क्या कांग्रेसी, वामपंथी, समाजवादी इस देश में दहेज नहीं लेते-देते, शादियों व अन्य कर्मकांडों में फ़िज़ूलख़र्ची और वक़्त की बरबादी नहीं करते ? फ़ेसबुक की ही तसवीरें ठीक से देख ली जाएं तो सब समझ में आने लगेगा।
आपकी लार पुरस्कार पर टपकेगी तो आप कहेंगे कि मुझे ‘क्रश’ आ गया है, दूसरे को ‘क्रश‘ आ जाए तो आप कहेंगे कि लार टपक रही है अगले की !? क्या भाषा और मुद्रा ( पोज़, जेस्चर ) की चालाक़ियों से प्रगतिशीलता और कट्टरता के फ़र्क़ तय किए जाएंगे !?
इस देश के तथाकथित प्रगतिशीलों की बातें सुनकर हंसी आती है ? कोई पुरस्कारों की हंसी उड़ाए तो पहले तो वे उस आदमी को इस या उस वाद से जोड़ने लगते हैं। उसके बाद उनके मुंह से तर्क के रुप में कुछ फूटता भी है तो इस तरह की शर्मनाक़ बातें कि अगला/अगली पुरस्कार का विरोध इसलिए कर रहा होगा/होगी कि इसको ख़ुदको कभी पुरस्कार नहीं मिला होगा ! तो ये रहे हमारे प्रगतिशील लोग! पुरस्कार के विरोधियों को फ्रस्ट्रेटेड और सनकी वग़ैरह बताने में ये एक मिनट भी तो नहीं लगाते! इनसे पूछिए कि एक आदमी एक मिट्टी की मूर्ति को नहलाता-धुलाता है, पूजा करता है, आप कहते हैं कि कट्टरपंथी है। ठीक कहते हैं। मगर आप अपने ड्राइंगरुम में पड़ी ट्रॉफ़ियों को रोज़ आंखों से नहलाते-धुलाते हैं तो आप क्या कर रहे होते हैं !? अगर आपके लिखने से समाज में कोई बदलाव आया है, समाज को कोई फ़ायदा हुआ है तो वह आपको अपने अनुभव से पता होना चाहिए, कि पुरस्कार उसके बारे में बताएगा !? अगर आपके लेखन से कुछ नहीं हुआ तो चाहे जितने पुरस्कार जमा करते रहिए, इनसे आपकी आत्ममुग्धता के अलावा और किसी भी चीज़ का पता नहीं चलेगा। इससे तो यही पता चलेगा कि आपमें इतना भी आत्मविश्वास नहीं कि ख़ुद अपने किए-धरे का सही-सही आकलन कर सकें।
क्या गंगा-जमुना, गंगा-जमुना रटते रहना ही प्रगतिशीलता है !? चलो पिछले एक-डेढ़ साल में बड़ा फ़ासीवाद आ गया है, मगर उससे पहले कितने शेर आपने ब्राहमणवाद पर लिखे और कितने दलित-दमन पर लिखे ? क्या शायरी की सारी उपलब्ध क़िताबों में से 250 शेर दलित-दमन पर और 500 शेर ब्राहमणवाद पर आप ढूंढकर दे सकते हैं ?
इतना भयानक फ़ासीवाद आ गया है तो विरोधी लेखकों की इतनी बड़ी-बड़ी रंगीन तसवीरें और पुराने मुशायरों की रिकॉर्डिंग कैसे हर चैनल पर दिखाई जा रहीं हैं ?
यह तो बड़ा मज़ेदार फ़ासीवाद है।
-संजय ग्रोवर
25-10-2015
(जारी)
इस देश में लेखकों की रचनाएं, संपादक और प्रकाशक, चाहे वे वामपंथीं हों या संघी, किस आधार पर छापते हैं, इसपर भी सवाल कम ही उठते हैं, कम ही उठेंगे।
एक बहस में देखा कि यह सवाल उठानेवाले लोग तो थे कि चौरासी के दंगों पर किसीने क्यों पुरस्कार नहीं लौटाया (और यह बिलकुल जायज़ सवाल है) मगर दलित वर्ग जिनके ऊपर आए दिन अत्याचार होता है, का कोई प्रतिनिधि वहां दिखाई नहीं दिया। बुलाया ही नहीं गया होगा।
यह सवाल भी नहीं उठा कि एक सरकार से लिए गए पुरस्कार दूसरी सरकार को कैसे लौटाए जा सकते हैं !?
क्या आप मानते हैं सभी सरकारें एक जैसी होतीं हैं ? एक ही होती हैं ? फ़िर तो सभी सरकारों को एक ही माना जाए, और तब तो स्पष्ट है कि पुरस्कार किसी भी सरकार से नहीं लेने चाहिए। तब तो पूरे देश में इन्हें सार्वजनिक घोषणा करनी चाहिए कि हम सरकार से पुरस्कार नहीं लेंगे।
वैसे तो साहित्यकार को किसीसे भी पुरस्कार क्यों लेने चाहिए ? क्या कोई इनके घर अपील करने गया था कि आप ज़रुर लेखक बनना, वरना हम जी नहीं पाएंगे, आत्महत्या कर लेंगे !? बहुत सारे लोग हैं भारत में जो दिन-भर काम करते हैं, मज़दूरी करते हैं, मैला ढोते हैं, क्लर्क हैं, सब्ज़ी बेचते हैं, खेती करते हैं...... कोई भी तो पुरस्कार नहीं मांगता, फ़िर साहित्यकार ऐसा क्या किए दे रहे हैं !? विदशी लेखकों को कोट कर-करके अख़बारों से हज़ारों के चेक ले लेते हैं, मेरी समझ में तो अगर स्वाभिमान और ईमान है तो वो पैसा भी वापिस करना चाहिए जो दूसरों के लेखन को अपना बना या बताकर ऐंठा गया है। और आप जो नौकरियां और व्यवसाय करते हैं वो आपको पूरा नहीं पढ़ता क्या ? आपको क़लम-पैन-निक्कर-कमीज़ सब सरकार से क्यों चाहिए !?
ये सवाल कोई नहीं उठाएगा। ज़ाहिर है कि पुरस्कार और मुफ़्त में मिलनेवाली सभी सुविधाओं का लालच सभी दलों के लिक्खाड़ों का बिलकुल एक जैसा है। ज़ाहिर है कि इन्हें आगे भी पुरस्कार और बाक़ी सभी सुविधाएं लेनी हैं और ये उसी अंदाज़ में बात भी कर रहे हैं। इनमें से कुछ लोग धर्म पर कुछ बोलने वालों पर लाठी लेकर दौड़ पड़ते हैं तो कुछ धर्मनिरपेक्षता पर कुछ बोलने पर। दोनों (या तीनों या चारों.....) की अपने नेताओं, महापुरुषों, आयकनों आदि को लेकर भक्ति का स्तर बिलकुल एक जैसा है। यहां सोचने की बात है कि धर्म की तो सभी चालाक़ियों से हम परिचित हैं (और नास्तिक ग्रुप में हमने इसके खि़लाफ़ नये से नये तर्क दिए हैं) मगर धर्मनिपेक्षता पर पर्याप्त बातचीत हमने क़तई नहीं की है। अगर मार्क्स ने कहा कि धर्म अफ़ीम का नशा है तो क्या किसी एक धर्म के लिए कहा होगा !? नशे का अर्थ बेहोशी और बुराई के अलावा और क्या हो सकता है ? अगर सभी धर्म बुरे हैं, हास्यास्पद हैं तो धर्मनिरपेक्षता की क्या ज़रुरत हुई !? फिर तो एक बुराईनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक गुंडानिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक अंधविश्वासनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक कट्टरपंथनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक कालाजादूनिरपेक्षता भी होनी चाहिए, एक कचरानिरपेक्षता भी होनी चाहिए....
सही बात यह है कि जिस तरह साकार भगवान से आगे की चालाक़ी निराकार भगवान है उसी तरह धर्म से आगे की चालाक़ी धर्मनिरपेक्षता है।
इस नज़रिए से सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि जो लोग आर एस एस को कट्टरपंथी (जोकि आर एस एस सौ प्रतिशत है) कहकर प्रगतिशील बनना चाहते हैं, क्या ख़ुद वे वाक़ई प्रगतिशील हैं ?
ये बहसें किसी शादी में जमा हुए रिश्तेदारों की अंत्याक्षरी जैसी क्यों लग रहीं हैं !?
इन सारी बहसों में एक ही पक्ष को बुलाया जा रहा है जो कि पुरस्कार का समर्थक है। दूसरा पक्ष जो पुरस्कार का विरोधी हो सकता है, उसका तो दूर-दूर तक नामोनिशान तक नहीं है।
19-10-2015
2.
सवाल यह है कि हमारे तथाकथित प्रगतिशीलों को प्रगतिशीलता के नाम पर बार-बार आर एस एस का संदर्भ क्यों लाना पड़ता है!? जहां तक मुझे याद आता है, जब तक मैं विवाह और इसी तरह के अन्य समारोहों में जाता था, लोग अपनी मर्ज़ी से सारे रीति-रिवाज़ किया करते थे। मैंने तो कभी नहीं देखा कि कोई आर एस एस या कोई राजनेता किसी पर दहेज लेने के लिए दबाव डाल रहा हो। क्या अंगूठा काटनेवाले द्रोणाचार्य को नायक की तरह हमारी पढ़ाई की क़िताबों में आर एस एस ने घुसाया ? उस वक़्त तो कांग्रेस और वामपंथ के ही हाथों में सब कुछ था। उन्हें क्यों नहीं हैरानी या आपत्ति हुई जब कबीरदास की जीवनी में लाश पर से कपड़ा हटाने पर फूल निकल आए ?
उस वक़्त मैं वामपंथ और वामपंथी बुद्धिजीवियों से प्रभावित हुआ करता था जब बाबा रामदेव मशहूर हुए। कम्युनिस्ट नेत्री वृंदा करात ने रामदेव के खि़लाफ़ कोई मामला उठाया। जब सभी न्यूज़-चैनलों पर बहस गर्म थी और रामदेव कह रहे थे कि इनका क्या है, ये तो हैं ही नास्तिक...तो मैं सोच रहा था कि अब कम्युनिस्ट दमदार तार्किक जवाब देंगे, अच्छा मौक़ा है सारे राष्ट्र को अपने बारे में बताने का...। मगर मुझे यह देखकर भारी निराशा हुई कि वे टीवी स्क्रीन से ऐसी ग़ायब हुईं कि महीनों तक नज़र नहीं आईं। अब तो ख़ैर मेरा चीज़ों को समझने का ढंग काफ़ी बदल गया है मगर उस वक़्त दुखी होना स्वाभाविक था।
वामपंथियों ने नास्तिकता के संदर्भ में कोई ढंग की कोशिश की हो, मुझे तो नहीं लगता। पं. बंगाल में 20-30 साल ज्योति बसु मुख्यमंत्री रहे, उस दौरान वहां धर्म और अंधविश्वास को लेकर समाज/लोगों की सोच में कितना परिवर्तन आया, पता लगाना चाहिए।
एक वक़्त तक बहुत-सारे न्यूज़- चैनलों पर वामपंथ का प्रभाव बताया जाता रहा मगर कहीं भी नास्तिकता का नाम तक सुनने में नहीं आता था तो यह किसकी ग़लती रही ? यह किस तरह की प्रगतिशीलता रही ?
प्रगतिशीलता का इनका दायरा तो इसीसे समझा जा सकता है कि पीके नाम की मनोरंजक फ़िल्म को भारत के तथाकथित प्रगतिशीलों ने एक महान क्रांतिकारी फ़िल्म की तरह पेश किया जबकि प्रगतिशीलता, बदलाव और अंधविश्वास कम करने के संदर्भ में फ़िल्म का अंत क़तई शर्मनाक़ था।
अब आप लोग ख़ुद सोचें कि ये लोग प्रगतिशीलता के नाम पर एक भ्रम को ही चलाए रखना चाहते हैं या असली प्रगतिशीलता से डरते हैं ? समस्या क्या है ? क्या आर एस एस की आड़ लेने और लेते रहने से समस्याएं हल हो जाएंगी ?
प्रगतिशीलता को लेकर इनकी नीयत क्या इसीसे नहीं समझी जा सकती कि इनके पसंदीदा केजरीवाल मंच पर चढ़ते ही भगवान-भगवान, चमत्कार-चमत्कार करना शुरु कर देते हैं। ऐसे में आर एस एस से तुलना कर-करके आप कब तक अपनी तसल्ली करते रहोगे ?
अभी-अभी पढ़ा कि श्री ग़ुलज़ार ने कहा है कि लेखक क्यों राजनीति करेंगे, लेखक तो समाज के ज़मीर को संभालते हैं।
क्या आपको लगता है कि ग़ुलज़ार की इस बात में किसी तरह का तर्क भी है !? क्या ग़ुलज़ार यह मानते हैं कि सभी लेखक बिलकुल एक जैसे होते हैं !? फ़िर तो सभी लेखकों को ग़ुलज़ार की तरह फ़िल्मों में ही लिखना चाहिए, उतना ही पैसा कमाना चाहिए। तर्क और आकाशवाणी में आखि़र कुछ तो फ़र्क होना चाहिए ? क्या ग़ुलज़ार साहब ने लेखकों के वे संस्मरण नहीं पढ़े हैं जिनमें वे ख़ुद ही एक-दूसरे की टांग-खिंचाई, धकेला-धकेली के बारे में लिखते रहते हैं। अगर सभी लेखक एक जैसे महान होते हैं तो उदयप्रकाश ने ‘पीली छतरीवाली लड़की’ और ‘मोहनदास’ में किन ब्राहमणवादी महानुभावों का वर्णन/ज़िक्र किया है ?
अगर सभी लेखक एक ही जैसे हैं तो संघी लेखकों और वामपंथी लेखकों का झगड़ा क्या है !?
(अगर कोई कहता कि मौक़ापरस्ती और मुफ़्त की सुविधाओं/पुरस्कारों के, मशहूरी की हवस के मामले में लेखक एक जैसे ‘महान’ हैं तो ज़रुर विचार किया जा सकता था।)
24-10-2015
3.
लेखक भी लालची होते हैं, कट्टरपंथी होते हैं, बेईमान होते हैं, राजनीति करते हैं...... ठीक वैसे ही जैसे व्यापारी होते हैं, राजनेता होते हैं या अन्य कोई भी इंसान होता है।
बिना किसी तार्किक आधार के आप लेखकों को मसीहा, देवता, महान बनाएंगे और फ़िर यह भी जताएंगे कि लेखकों को सरस्वतीपुत्र बतानेवाले ब्राहमणवाद, कट्टरपंथ और आर एस एस से आप अलग हैं!? क्या बात है !?
तथ्य और तर्क के बिना लेखकों, कलाकारों, गायकों, संगीतकारों को पवित्र और महामानव बनाने की कोशिशें, बाबाओं के भगवान बनकर मौज करने या फ़िल्मस्टारों की एक गढ़ी गई इमेज के ज़रिए ऐश करने की मानसिकता से किस तरह अलग हैं ? लेखकों को ख़ामख़्वाह सबके सर पर बिठाने के प्रयत्न जातिवादी और श्रेष्ठतावादी मानसिकता का ही एक नमूना है, और कुछ भी नहीं है।
और बाबाओं पर निशाना साधने में भी पूरी चालाक़ी बरती जाती है। कुछ ख़ास वर्गों से संबंधित बाबाओं पर वह ब्राहमणवाद आधुनिकता/प्रगतिशीलता का चोला पहनकर हमले करता है जिसके द्वारा रचित तथाकथित अध्यात्म से ही बाबावाद का जन्म हुआ। जिनके लोग चाहे आर एस एस में हों चाहें वामपंथ में, हर वक़्त चालू धर्मों और वर्णों को बचाने में सारी जान लगाए रहते हैं। वरना एक वह भी फ़ोटो जगह-जगह देखा गया जिसमें सफ़ेदवस्त्रधारी साईंबाबा की मृतदेह शीशे के चमकते बक्से में रखी थी और श्रीमती सोनिया गांधी, सचिन तेंदुलकर, सुनील गावस्कर जैसे ‘प्रगतिशील‘ और ‘एडुकेटेड’ लोग वहां श्रद्धारत बैठे थे। ये वे साईंबाबा थे जो लोगों को आर्शीवाद स्वरुप सफ़ेद पाउडर और सफ़ेद गोले अपनी बाहों और मुंह से निकाल-निकालकर बांटते थे। इन्होंने अपने मुंह से कभी एक शब्द नहीं बोला था। क्या सफ़ेद कपड़ों और ‘एडुकेटेड’ भक्तों की वजह से इन्हें प्रगतिशील माना जाए ? क्या बाबाओं और उनकी कट्टरताओं और अंधविश्वासों में फ़र्क़ उनके कपड़ों के रंग या भक्तों की इलीटनेस में फ़र्क़ के आधार पर किया जाएगा ? क्या दाढ़ी और बालों से आदमी के चरित्र का पता लगाया जा सकता है ? क्या इस समाज में क्लीनशेवन बाबा और बाबियां घर-घर और चैनल-चैनल नहीं बैठे हुए हैं ? ये सबके सब अपना अब तक का सारा किया-धरा छुपाकर सारा दोष एक-दो लोगों पर मढ़ने की कोशिश कर रहे हैं जैसे एकाध आदमी ने इस देश में चला आ रहा सारा पाखंड पैदा किया हो!? करवाचौथ भी उसी ने बनाया हो और एकलव्य का अंगूठा भी उसीने काटा हो। यह सिवाय मौक़ापरस्ती, ग़ैरज़िम्मेदारी और अपना दोष दूसरे के सर मढ़ने के अलावा कुछ भी नहीं है। क्या कांग्रेसी, वामपंथी, समाजवादी इस देश में दहेज नहीं लेते-देते, शादियों व अन्य कर्मकांडों में फ़िज़ूलख़र्ची और वक़्त की बरबादी नहीं करते ? फ़ेसबुक की ही तसवीरें ठीक से देख ली जाएं तो सब समझ में आने लगेगा।
आपकी लार पुरस्कार पर टपकेगी तो आप कहेंगे कि मुझे ‘क्रश’ आ गया है, दूसरे को ‘क्रश‘ आ जाए तो आप कहेंगे कि लार टपक रही है अगले की !? क्या भाषा और मुद्रा ( पोज़, जेस्चर ) की चालाक़ियों से प्रगतिशीलता और कट्टरता के फ़र्क़ तय किए जाएंगे !?
इस देश के तथाकथित प्रगतिशीलों की बातें सुनकर हंसी आती है ? कोई पुरस्कारों की हंसी उड़ाए तो पहले तो वे उस आदमी को इस या उस वाद से जोड़ने लगते हैं। उसके बाद उनके मुंह से तर्क के रुप में कुछ फूटता भी है तो इस तरह की शर्मनाक़ बातें कि अगला/अगली पुरस्कार का विरोध इसलिए कर रहा होगा/होगी कि इसको ख़ुदको कभी पुरस्कार नहीं मिला होगा ! तो ये रहे हमारे प्रगतिशील लोग! पुरस्कार के विरोधियों को फ्रस्ट्रेटेड और सनकी वग़ैरह बताने में ये एक मिनट भी तो नहीं लगाते! इनसे पूछिए कि एक आदमी एक मिट्टी की मूर्ति को नहलाता-धुलाता है, पूजा करता है, आप कहते हैं कि कट्टरपंथी है। ठीक कहते हैं। मगर आप अपने ड्राइंगरुम में पड़ी ट्रॉफ़ियों को रोज़ आंखों से नहलाते-धुलाते हैं तो आप क्या कर रहे होते हैं !? अगर आपके लिखने से समाज में कोई बदलाव आया है, समाज को कोई फ़ायदा हुआ है तो वह आपको अपने अनुभव से पता होना चाहिए, कि पुरस्कार उसके बारे में बताएगा !? अगर आपके लेखन से कुछ नहीं हुआ तो चाहे जितने पुरस्कार जमा करते रहिए, इनसे आपकी आत्ममुग्धता के अलावा और किसी भी चीज़ का पता नहीं चलेगा। इससे तो यही पता चलेगा कि आपमें इतना भी आत्मविश्वास नहीं कि ख़ुद अपने किए-धरे का सही-सही आकलन कर सकें।
क्या गंगा-जमुना, गंगा-जमुना रटते रहना ही प्रगतिशीलता है !? चलो पिछले एक-डेढ़ साल में बड़ा फ़ासीवाद आ गया है, मगर उससे पहले कितने शेर आपने ब्राहमणवाद पर लिखे और कितने दलित-दमन पर लिखे ? क्या शायरी की सारी उपलब्ध क़िताबों में से 250 शेर दलित-दमन पर और 500 शेर ब्राहमणवाद पर आप ढूंढकर दे सकते हैं ?
इतना भयानक फ़ासीवाद आ गया है तो विरोधी लेखकों की इतनी बड़ी-बड़ी रंगीन तसवीरें और पुराने मुशायरों की रिकॉर्डिंग कैसे हर चैनल पर दिखाई जा रहीं हैं ?
यह तो बड़ा मज़ेदार फ़ासीवाद है।
-संजय ग्रोवर
25-10-2015
(जारी)
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (20-10-2015) को "हमारा " प्यार " वापस दो" (चर्चा अंक-20345) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी...
आप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 21/10/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
पांच लिंकों का आनंद पर लिंक की जा रही है...
इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...
आपने जो टैम्प्लेट लगाया है उसमें पीछे का बैकग्राउंड इमेज पढ़ने में बाधा पैदा करता है. कृपया इसे हटा दें.
जवाब देंहटाएंसरकार जाने या भगवान जाने .....
जवाब देंहटाएंविचारणीय प्रस्तुति ..