गुरुवार, 29 मई 2014

प्लांटिंग, पवित्रता और प्रतिबद्धता


बात दिलचस्प है इसलिए बता रहा हूं।

देखता हूं कि जो लोग किसी तथाकथित महान विचारधारा और गुट से जुड़े होते हैं वे अकेले और स्वतंत्र व्यक्ति का विरोध करने में कुछ हिचकिचाते हैं। वजह तो पता नहीं, अंदाज़ा लगाना चाहें तो कोई आफ़त भी नहीं आ रही-शायद उन्हें विश्वास ही नही हो पाता कि आदमी अकेले भी स्वतंत्र हो सकता है, बिना ऊपर से आए ऑर्डर के भी कुछ कर सकता है। उनकी ग़लती भी नहीं है, जैसी ज़िंदग़ी आदमी जीता है, उससे अलग या आगे की कल्पना उसके लिए मुश्क़िल होती होगी।

उन्हें अगर अकेले विचारक का विरोध करने की ट्रेनिंग नहीं मिली तो करें क्या ? फिर ऐसा क्यों न किया जाए कि उसे किसी विरोधी गुट से जुड़ा दिखा दिया जाए जिससे दिखावटी या वास्तविक लड़ाई में वे प्रशिक्षित किए गए हैं। हांलांकि यह तरीक़ा कुछ ऐसा ही है जैसे आप पहले किसीके घर में जाकर स्मैक का पाउच प्लांट कर दें फिर दूसरे दिन अख़बार में ख़बर निकले कि ‘नशे का ख़तरनाक़ तस्कर गिरफ्तार, भारी मात्रा में स्मैक बरामद’। यह विधि है तो शर्मनाक़ पर धर्म और धारा की भलाई की ख़ातिर कब क्या न करना पड़ जाए, कुछ मालूम नहीं।

वैसे गुटधारियों की ज़िंदगी होती इतनी मनोरंजक है कि कई बार ज़रुर अकेले आदमी का भी मन होता होगा कि इन्हीं के बीच जाके पसर जाए। भिन्न-भिन्न तरीक़ों से ये लोग संबोधनों, विशेषणों, अवसरों और परिस्थितियों का उपयोग करते हैं। जैसे कि इनका विरोधी गुट अफ़वाहें उड़ाए तो ये एकदम पवित्रता का धुंआ छोड़ने लगते हैं, नाक सिकोड़ने लगते हैं कि देखो कैसे-कैसे षड्यंत्र ये लोग करते हैं, बेहूदे कहीं के। मगर जब ये ख़ुद अफ़वाहें उड़ातें तो भारी मजबूरी में उड़ाते हैं-क्या करें कोई और रास्ता ही नहीं था, कुछ न कुछ रणनीति तो बनानी ही पड़ती है, आखि़र हमारी लड़ाई सच की लड़ाई है, हमारी कोई उनके जैसी थोड़ी है।

मज़े की बात है जब मरज़ी ये सच का ठेका ले लेते हैं और जब दिल करे झूठ में सहजता ढूंढने लगते हैं। बहुत ही मतलब कमिटेड लोग होते हैं, विरोधी गुट की भाषा में प्रतिबद्ध। कभी, अभी अपने नये मकान में चिलगोज़े खाने का अपना फ़ोटो दिखाकर बताते हैं कि कैसे मेरा संघर्ष सफ़ल हुआ तो कभी अचानक रोना-धोना शुरु कर देते हैं कि यार सारी ज़िंदग़ी फ़क़ीरी में बीत गई, कुछ हासिल नहीं हुआ, तुम्ही कुछ करवाओ न यार।
कहने में डर रहा हूं मगर लगता यही है कि इनका सिद्धांत एक ही होता है कि जब जहां जिससे फ़ायदा हो, जिधर को भीड़ जाती दिखे, तुरंत उसी रंग में आ जाओ। दारु पी रहे हो तो आवारग़ी को महान साबित करने में हाथ-पैर तोड़ लो, परिवारों के साथ बैठे हो तो कहो कि मैं तो शुरु से कहता था कि एक दिन तो तुम्हे यह करना ही पड़ेगा। इसके अलावा रास्ता भी क्या था।

सत्ता से इनकी लड़ाई हमेशा रहती है। हम जैसे तो वैसे भी कया लड़ेंगे सत्ता से, हमें तो मालूम भी नहीं कि रहती किधर है, हमारी तो ज़िंदग़ी ऐसे छोटे-मोटे झंझटों से निपटते बीत जाती है जिनमें लोकल अख़बारों को भी कोई ग्लैमर नहीं दिखता। सत्ता के बारे में हमें तो तभी जानने को मिलता है जब किसी सत्ता-विरोधी को कोई पुरस्कार, कोई वजीफ़ा, कोई ग्रांट, कोई यात्रा मिलने की ख़बर आती है। ख़बर देने वाले चैनल भी सत्ता-विरोधी ही होते हैं। सत्ता का मूड भी क्या ग़ज़ब होता है कि इसे जब अपने विरोधियों पर ज़्यादा ग़ुस्सा आता है तो ग़ुस्से में यह उन्हें पुरस्कार और सम्मान फ़ेक-फ़ेंक कर मारती है।

मैं ऐसे लोगों को सीरियसली इसलिए लेता हूं कि ये आपस में मिल जाएं तो किसीको कुछ भी साबित कर सकते हैं, किसीको भी सीरियस हालत में पहुंचा सकते हैं। वैसे इन्हें मिलना पड़ता भी नहीं है, ये मिले-मिले से ही होते हैं। उसदिन सड़कपर परस्पर-विरोधी दो प्रतिबद्धों की बातें सुनने को मिल गई-

कई साल बाद मिले यार, कैसा चल रहा है?

बस, सब सैट हैं, एक लड़का डॉक्टर हो गया है, एक इंजीनियर है, एक बामपंथ में डाल दिया है, एक जॉनसंघ में लग गया है, बस मिल-जुलके बढ़िया चला रहे हैं ऊपरवाले की कृपा से।

अच्छा, सुना तो था कि आपने एक गोद भी लिया था जिसे सफ़ाई का क्रेज़ हो गया था....?

अरे! वो तो....कहने लगा पापा, सफ़ाई की एक्टिंग अलग बात है, परफ़ॉर्मेंस अलग बात है पर ज़िंदगी-भर येई थोड़े ना करता रहूंगा, मैं क्या इसके लिए पैदा हुआ हूं.....मुझे भी रहम आ गया, मैंने कहा कि सारी समानता के ठेका हमींने थोड़े ले लिया है, तू कुछ अफ़सरी वगैरह कर ले, जा जी ले अपनी ज़िंदग़ी....

तो साथित्रो, हांलांकि स्टेज पर तो ये लड़ते ही रहते हैं, मगर ये लेख पढ़कर कहीं ये न कह दें कि यह आदमी हमारे समाज को तोड़ रहा है, फूट डाल रहा है....

इसलिए इस लेख को चुपचाप पढ़ लें और भूल जाएं।

-संजय ग्रोवर
29-05-2014


गुरुवार, 15 मई 2014

कल तक आत्मविश्वास

कविता
रेखाकृति: संजय ग्रोवर



कुछ लोगों में कल तक आत्मविश्वास था।
कुछ लोगों में कल तक आत्मविश्वास आ जाएगा।
या ऐसा भी हो सकता है कि
जिनमें कल तक आत्मविश्वास था
उन्हीं में कल भी रहेगा
जिनमें कल तक नहीं था
उनमें कल भी नहीं आएगा

कुछ भी हो
एक बात तो है
लोगों को अपने  आत्मविश्वास के बारे में
ठीक से कुछ भी पता नहीं है
कि यह एक कलंडर पर टिका है
कि यह एक तारीख़ पर टिका है
कि यह एक पार्टी पर टिका है
कि यह एक पद पर टिका है
कि यह एक दुकान, एक मकान पर टिका है
कि यह एक प्रेमी, एक प्रेमिका पर टिका है
कि यह एक सफ़लता, एक हार, एक जीत पर टिका है
कि यह एक भीड़ के इधर से उधर या उधर से इधर हो जाने पर टिका है
कि यह कुछ पैंतरों, कुछ रणनीतियों पर टिका है
कि यह कुछ समझौतों, कुछ मौक़ापरस्ती पर टिका है
या
हमारी मेहनत का नतीजा है
हमारी सोच से उपजा है?

मैंने ईमानदारी के लिए लड़ते.......
छोड़िए यह झूठ ही होगा
मैंने हक़ के लिए लड़ते लोगों को
देखा था कभी-कभी
उन्हें क्या ध्यान रहता था कि लड़ते समय उनका चेहरा कैसा हो जाता है
क्या वे ऐसा अफ़ोर्ड भी कर सकते थे?
क्या घर से निकलते उन्हें मालूम भी होता था कि
आज किस बात के लिए किससे लड़ना पड़ जाएगा
उनका तो कांपने लगता था सारा शरीर
होंठों के किनारे हो जाते थे थूक से सफ़ेद
सच कहूं तो
वे तो दयनीय लगने लगते थे
वे तो शुक्र करते होंगे कि आस-पास कोई कैमरा नहीं था
वरना क्या वे आत्मविश्वासी की परिभाषा में फ़िट बैठ पाते
वे तो कलंकित ही करते
सभी मान्यताओं को

आत्मविश्वास अगर इतनी ही हास्यास्पद चीज़ है
तो इसे हास्यास्पद लोगों को दान कर देना चाहिए
हंसी आए तो हंस लेना चाहिए

कम-अज़-कम इतना आत्मविश्वास तो होना ही चाहिए
कि यह सोचने की हिम्मत की जा सके
कि आत्मविश्वास होता क्या है
इसकी ज़रुरत क्या है
इसकी क़ीमत क्या है

कि बेईमान आदमी
भरे बाज़ार में छाती ठोंककर कैसे चिल्लाता है
कि झूठा आदमी
सबसे ज़्यादा अभ्यस्त कैसे है
आंख से आंख मिलाकर बात करने का

माफ़ कीजिए
ऐसा आत्मविश्वास आप अपने पास रखिए
हमें जो करना है
बिना आत्मविश्वास के बेहतर कर रहे हैं



-संजय ग्रोवर
15-05-2014

रविवार, 4 मई 2014

यह आदर नहीं राजनीति है मां

दो कविताएं

1.
जब सब कुछ ईश्वर ने ही करना है तो


मैंने सुना है कि कोई ईश्वर है जो हर कहीं मौजूद है
मैं तो सुनी-सुनाई बातों में यक़ीन नहीं करता
तुम करते हो तो बताओ कहां-कहां है?


उस आदमी में जो कुचला गया?
उस बुलडोज़र में जो उसपर चढ़ गया?
या उसमें जो बुलडोज़र चला रहा है?
या उसमें जो चलवा रहा था?
या उनमें जो देख रहे थे?
और उनमें भी जो देखकर भी नहीं देख रहे थे?
उनमें तो ज़रुर जो बुलडोज़र की ख़बर पर बुलडोज़र चला सकते थे!

या फ़िर सबमें रहा होगा!

यानि ईश्वर, ईश्वर पर बुलडोज़र चला रहा था,
ईश्वर मर रहा था
ईश्वर मार रहा था
ईश्वर भाग रहा था
ईश्वर हंस रहा था
ईश्वर फंसा रहा था
ईश्वर फ़ंस रहा था

ईश्वर यह भी कर रहा है
ईश्वर वह भी करवा रहा है

जब सब कुछ ईश्वर ने ही करना और करवाना है
तो फिर मेरे और तुम्हारे होने का क्या मतलब हुआ ?
हम यह दुनिया ख़ाली क्यों नहीं कर देते ?
उन लोगों के लिए
जो अपने दम पर कुछ करना चाहते हैं।

01-05-2014


2.
यह आदर नहीं राजनीति है मां


मां मैं तेरा बहुत आदर करता हूं
मैं तुझे बहुत प्यार करता हूं मां
मां मैं तेरे बिना रह नहीं सकता मां

मां जो मैं कह रहा हूं तू समझ रही है न मां !
मां जो मैं कह रहा हूं अगर वह सही है
तो फिर ऐसा क्यों न हुआ मां!

कि बरामदे में पोचा मैं लगाता और बैठक में हलवा तू खाती
रसोई के अंधेरे में दाल से कंकर मैं बीनता और फ़िल्म देखने तू जाती
तू रात एक बजे अंधेरे में अपने दोस्तों के साथ घर लौटती
और मैं बिना कोई सवाल किए तेरे लिए खाना गर्म करता

यह कैसा आदर है मां, यह कैसा प्यार है
कि जिसका आदर हो रहा  है उसे सारे नुकसान झेलने होते हैं
जो आदर करता है वो सारे ऐश करता है

यह आदर है कि राजनीति है मां
तू कभी पूछती क्यों नहीं
सोचती क्यों नहीं

मैं एक नंबर का झूठा हूं मां
मेरी बात का बिलकुल विश्वास न करना

अभी भी वक़्त है
अपनी बची-ख़ुची ज़िंदग़ी को बचा ले मां

-संजय ग्रोवर
04-05-2014


देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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