बात दिलचस्प है इसलिए बता रहा हूं।
देखता हूं कि जो लोग किसी तथाकथित महान विचारधारा और गुट से जुड़े होते हैं वे अकेले और स्वतंत्र व्यक्ति का विरोध करने में कुछ हिचकिचाते हैं। वजह तो पता नहीं, अंदाज़ा लगाना चाहें तो कोई आफ़त भी नहीं आ रही-शायद उन्हें विश्वास ही नही हो पाता कि आदमी अकेले भी स्वतंत्र हो सकता है, बिना ऊपर से आए ऑर्डर के भी कुछ कर सकता है। उनकी ग़लती भी नहीं है, जैसी ज़िंदग़ी आदमी जीता है, उससे अलग या आगे की कल्पना उसके लिए मुश्क़िल होती होगी।
उन्हें अगर अकेले विचारक का विरोध करने की ट्रेनिंग नहीं मिली तो करें क्या ? फिर ऐसा क्यों न किया जाए कि उसे किसी विरोधी गुट से जुड़ा दिखा दिया जाए जिससे दिखावटी या वास्तविक लड़ाई में वे प्रशिक्षित किए गए हैं। हांलांकि यह तरीक़ा कुछ ऐसा ही है जैसे आप पहले किसीके घर में जाकर स्मैक का पाउच प्लांट कर दें फिर दूसरे दिन अख़बार में ख़बर निकले कि ‘नशे का ख़तरनाक़ तस्कर गिरफ्तार, भारी मात्रा में स्मैक बरामद’। यह विधि है तो शर्मनाक़ पर धर्म और धारा की भलाई की ख़ातिर कब क्या न करना पड़ जाए, कुछ मालूम नहीं।
वैसे गुटधारियों की ज़िंदगी होती इतनी मनोरंजक है कि कई बार ज़रुर अकेले आदमी का भी मन होता होगा कि इन्हीं के बीच जाके पसर जाए। भिन्न-भिन्न तरीक़ों से ये लोग संबोधनों, विशेषणों, अवसरों और परिस्थितियों का उपयोग करते हैं। जैसे कि इनका विरोधी गुट अफ़वाहें उड़ाए तो ये एकदम पवित्रता का धुंआ छोड़ने लगते हैं, नाक सिकोड़ने लगते हैं कि देखो कैसे-कैसे षड्यंत्र ये लोग करते हैं, बेहूदे कहीं के। मगर जब ये ख़ुद अफ़वाहें उड़ातें तो भारी मजबूरी में उड़ाते हैं-क्या करें कोई और रास्ता ही नहीं था, कुछ न कुछ रणनीति तो बनानी ही पड़ती है, आखि़र हमारी लड़ाई सच की लड़ाई है, हमारी कोई उनके जैसी थोड़ी है।
मज़े की बात है जब मरज़ी ये सच का ठेका ले लेते हैं और जब दिल करे झूठ में सहजता ढूंढने लगते हैं। बहुत ही मतलब कमिटेड लोग होते हैं, विरोधी गुट की भाषा में प्रतिबद्ध। कभी, अभी अपने नये मकान में चिलगोज़े खाने का अपना फ़ोटो दिखाकर बताते हैं कि कैसे मेरा संघर्ष सफ़ल हुआ तो कभी अचानक रोना-धोना शुरु कर देते हैं कि यार सारी ज़िंदग़ी फ़क़ीरी में बीत गई, कुछ हासिल नहीं हुआ, तुम्ही कुछ करवाओ न यार।
कहने में डर रहा हूं मगर लगता यही है कि इनका सिद्धांत एक ही होता है कि जब जहां जिससे फ़ायदा हो, जिधर को भीड़ जाती दिखे, तुरंत उसी रंग में आ जाओ। दारु पी रहे हो तो आवारग़ी को महान साबित करने में हाथ-पैर तोड़ लो, परिवारों के साथ बैठे हो तो कहो कि मैं तो शुरु से कहता था कि एक दिन तो तुम्हे यह करना ही पड़ेगा। इसके अलावा रास्ता भी क्या था।
सत्ता से इनकी लड़ाई हमेशा रहती है। हम जैसे तो वैसे भी कया लड़ेंगे सत्ता से, हमें तो मालूम भी नहीं कि रहती किधर है, हमारी तो ज़िंदग़ी ऐसे छोटे-मोटे झंझटों से निपटते बीत जाती है जिनमें लोकल अख़बारों को भी कोई ग्लैमर नहीं दिखता। सत्ता के बारे में हमें तो तभी जानने को मिलता है जब किसी सत्ता-विरोधी को कोई पुरस्कार, कोई वजीफ़ा, कोई ग्रांट, कोई यात्रा मिलने की ख़बर आती है। ख़बर देने वाले चैनल भी सत्ता-विरोधी ही होते हैं। सत्ता का मूड भी क्या ग़ज़ब होता है कि इसे जब अपने विरोधियों पर ज़्यादा ग़ुस्सा आता है तो ग़ुस्से में यह उन्हें पुरस्कार और सम्मान फ़ेक-फ़ेंक कर मारती है।
मैं ऐसे लोगों को सीरियसली इसलिए लेता हूं कि ये आपस में मिल जाएं तो किसीको कुछ भी साबित कर सकते हैं, किसीको भी सीरियस हालत में पहुंचा सकते हैं। वैसे इन्हें मिलना पड़ता भी नहीं है, ये मिले-मिले से ही होते हैं। उसदिन सड़कपर परस्पर-विरोधी दो प्रतिबद्धों की बातें सुनने को मिल गई-
कई साल बाद मिले यार, कैसा चल रहा है?
बस, सब सैट हैं, एक लड़का डॉक्टर हो गया है, एक इंजीनियर है, एक बामपंथ में डाल दिया है, एक जॉनसंघ में लग गया है, बस मिल-जुलके बढ़िया चला रहे हैं ऊपरवाले की कृपा से।
अच्छा, सुना तो था कि आपने एक गोद भी लिया था जिसे सफ़ाई का क्रेज़ हो गया था....?
अरे! वो तो....कहने लगा पापा, सफ़ाई की एक्टिंग अलग बात है, परफ़ॉर्मेंस अलग बात है पर ज़िंदगी-भर येई थोड़े ना करता रहूंगा, मैं क्या इसके लिए पैदा हुआ हूं.....मुझे भी रहम आ गया, मैंने कहा कि सारी समानता के ठेका हमींने थोड़े ले लिया है, तू कुछ अफ़सरी वगैरह कर ले, जा जी ले अपनी ज़िंदग़ी....
तो साथित्रो, हांलांकि स्टेज पर तो ये लड़ते ही रहते हैं, मगर ये लेख पढ़कर कहीं ये न कह दें कि यह आदमी हमारे समाज को तोड़ रहा है, फूट डाल रहा है....
इसलिए इस लेख को चुपचाप पढ़ लें और भूल जाएं।
-संजय ग्रोवर
29-05-2014