No east or west,mumbaikar or bihaari, hindu/muslim/sikh/christian /dalit/brahmin… for me.. what I believe in logic, rationality and humanity...own whatever the good, the logical, the rational and the human here and leave the rest.
गुरुवार, 24 जून 2010
टीवी से पहले, टीवी के बाद
सारे के सारे बादल चाँद के पीछे जा छुपे थे। हर सितारा सूरज की तरह चमकता मालूम होता था। सुबह का सूरज आँखों को शीतलता प्रदान कर रहा था। लू के थपेड़े ऐसे लगते थे जैसे माँ बचपन में सुलाते वक्त लोरी गाते हुए थपकियाँ दिया करती थी। गली की लड़कियां जो मुझे दूर से आते देखकर प्रत्यक्षतः पिछली दीवार पर लगे राजेश खन्ना के फटे-पुराने फिल्मी पोस्टर को देखने को वरीयता देती थी आज मुझे नमकीन निगाहों से निहार रही थीं। मेरे पड़ोसी का पालतू कुत्ता जो प्रति पदचाप पाँच गुर्राहट की दर से मेरा मुकाबला करता था आज मेरी गन्ध मात्र पर ऐसे पूंछ हिला रहा था जैसे ऐतिहासिक फिल्मों के दृश्यों में राजा महाराजाओं के सिरहाने खड़ी दासियाँ पंखे झुलाया करती थीं।
यह एकाएक सबको क्या हो गया था?
दरअसल मैं कल रात पहली बार टीवी पर आया था।
कविताएं तो मैंने पहले भी बहुत कहीं थी। साहित्य सृजन तो मैंने हमेशा ही इसी तरह किया था। और कल रात टीवी पर जो रचनाएं मैंने पढ़ीं उन्हें कल से पहले लोगों तक पहुंचाने के लिये मुझ इतनी ही मेहनत करनी पड़ती थी जितनी एक फिक्रमंद बाप को अपने बीमार बच्चे के हाथ-पैर पकड़ कर, नाक बन्द करके कड़वी दवा पिलाने में करनी पड़ती है। लेकिन आज लोगों की बदली हुई (पोज़ीटिव) निगाहें देखकर ही अंदाजा हो गया था कि रचनाओं का रसास्वादन उन्होंने कैसे किया था। लगता था जैसे सभी रात को रसगुल्ला खाकर सोए हों।
फिर भी लोगों के मूड में एकाएक आया यह परिवर्तन बेहद रहस्यमयी था। यह कमाल मेरी रचनाओं का था या दूरदर्शन की साख का। हालांकि दोनों ही अपने-अपने रूपों में बिल्कुल पहले जैसे थे। न मैंने अपनी रचनाओं में कोई परिवर्तन किया था न दूरदर्शन ने अपनी दृष्टि में। फिर इन दोनों के विलय से ऐसा चमत्कारी रासायनिक परिवर्तन कैसे हो गया था। इस महत्वपूर्ण रासायनिक फार्मूले को मैं शीघ्रातिशीघ्र समझकर सुरक्षित रख लेना चाहता था।
फिर मैंने एक-एक कर इन सभी घटनाओं पर दोबारा दृष्टि डालना शुरू किया जो मेरे टीवी स्क्रीन की छत तक पहुँचने के दौराने-सफर बीच सीढ़ियों में घटी थी। मेरी स्मृति के पर्दे पर सारे दृश्य टीवी के बिना सेंसर किए गए विज्ञापनों की तरह तेजी से तैरने लगे। जैसे मंचीय मुद्राएं सीखते समय मुझे किन मुश्किलात और कैसी मानसिक जद्दोज़हद से गुजरना पड़ा था। कितनी उम्र गुज़र जाने पर मेरी समझ में आ सका था कि साहित्यकार होने के साथ-साथ साहित्यकार दिखना भी जरूरी है। तब कैसे-कैसे मैंने पता लगाया था कि साहित्यिक चेहरे को फोटोजेनिक-टच देने के लिए सौन्दर्य-प्रसाधन बनाने वाली कम्पनियों (अर्थात् गुटों) में से किसके उत्पादन सबसे सस्ते, असरकारक और टिकाऊ हैं।
कैसे मैंने आम जनता का प्यारा कवि बने रहने के गुर सीखे थे और जहां जनता जैसा चाहती थी वहां वैसा ही कहना-लिखना शुरू कर दिया था। साथ ही नियमित अंतराल के बाद बात-बेबात जनता की तारीफ करना शुरू कर दिया था। कैसे मैंने पद-प्रतिष्ठा-पैसा-पहुँच-पौरूष-प्रचार इन छः तत्वों के संयोग से सम्मेलनों को सफल आयोजनों में ढालना सीखा और तब ‘‘तू मुझे बुला मैं तुझे बुलाऊँ‘‘ का सफल सूत्र मेरी बीमार होती साहित्यिक सेहत के लिये रामबाण औषधि सिद्ध हुआ था। मुझे यह भी याद है कि अपने विचारों और संवेदनाओं को स्थगित करना मैंने उन लोगों से सीखा था जिन्हें यह सब करने और सीखने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। (क्योंकि वहाँ न तो विचार थे न संवेदनाएं)।
शहर में अगर मेरे होने के बावजूद उभरता कोई साहित्यकार किसी बड़े प्रकाशन में अपनी रचना तीन साल के कड़े संघर्ष के बाद छपवा पाता तो मैं तीन दिन उसके साथ चैराहे -चैराहे घूमने जितनी मामूली मेहनत से ही मशहूर कर देता कि ‘‘ये आज जो कुछ है इन्हीं की (मेरी) बदौलत हैं।‘‘ जब कि अन्दर ही अन्दर खुद मैं मरा जा रहा होता था कि जल्द से जल्द इसकी स्थिति साहित्य में सचमुच सुदृढ़ हो जाए ताकि इसके सहारे मेरी भी दो-चार रचनाएं बड़े अखबार में स्थान पा सकें। खैर! जो संपादक मेरे दोस्त बन गए थे, ख़ुद ही बता देते थे कि आज तुम्हारी रचना के विरोध में 20-25 जो ख़त आए थे, हमने रद्दी में फिंकवा दिए हैं, अब तुम क्षतिपूर्ति के लिए इतने ही ख़त प्रशंसा में अपने दोस्तों-रिश्तेदारों से लिखवाकर हमें दे दो। मैं कहता, मैं तो 50 लिखवा कर ले आया हूं, चलो आधे अगली बार लगा देना। इस मामले में जिन संपादकों के स्वभाव और विचार मुझसे भिन्न होते, उनके मैं स्टाफ़ को सैट कर लेता। स्टाफ भी अगर हरामी होता तो मैं कुछ और कमीनी तरकीबें इस्तेमाल कर लेता था। आपको नहीं बताऊंगा।
तत्पश्चात् कैसे मैंने नेताओं से सम्पर्क सांठा। कैसे अधिकारियों से रिश्ता गाँठा। कैसे लोगों, विचारों, किताबों और अखबारों को दलों, वादों, पंथों, सम्प्रदायों, धाराओं, धर्मों वगैरह के हिसाब से बाँटा। कैसे-कैसे उपायों से विरोधियों का पत्ता काटा। कैसे मैंने अपने से मिलती- जुलती विचारधारा के लोगों को छाँटा।
अर्थात् ऐसी तमाम तात्कालिक, त्वरित तपस्याओं के बाद मेरे मन के मुर्गे की बांग बुद्धत्व को प्राप्त हुई और उसने जब चाहे तब अपनी इच्छा पर साहित्यिक सुबह का सूर्योदय सुलगाने का हुनर हासिल कर लिया। यानि अब इतना हुआ कि मुझे व मेरी बातों को ‘‘बच्चा है‘‘ कहकर अपने अनुभवों की नाक पर से मक्खी की तरह उड़ा देने वाले ‘बाबागण‘ मुझ पर नज़र पड़ते ही ‘‘भाई साहब हम तो आपके ही बच्चे हैं। ज़रा नज़र रखना।‘‘ जैसे दूधिया वाक्यों की (दु)र्गन्ध से मुझे आकर्षित करने के उपाय खोजने लगते। रिश्तों के विलोमान्तर का मध्यान्तर अन्ततः अपनी मौत आप मर गया था।
इस प्रकार आपने देखा कि देखने में छोटी-छोठी लगने वाले बातें महसूस करने में कित्ती बड़ी-बड़ी हो सकती हैं। खुद मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या बताऊँ और क्या छोडूँ? क्यों बताऊँ या क्यों छोड़ूं! लेकिन एक बात साफ कर दूं। जो बालबुद्धि साहित्य-छौने बल खा-खाकर बौराए जा रहे हों कि सस्ते में सफलता के सूत्रों की सन्दूकची हाथ लग गई है, वे ज़रा अपने उत्साह की अंगीठी को ठंडा कर लें। ज़माना एक बार फिर आगे निकल चुका है। टाप-लेवल साहित्यिक स्थानों की आई.ए.एस. परीक्षाओं में उपरोक्त सूत्र अब प्रिलिमिनरी परीक्षा की कुंजी से ज्यादा महत्व नहीं रखते। वक्त और परिस्थितियों के साथ-साथ सफलता के सूत्र भी बदल जाते हैं। नई परिस्थितियों एवं नई चुनौतियों के लायक फार्मूले गढ़ने के लिये प्रतिभा और सृजनात्मकता की जरूरत होती है। जिसमें होती है उसे ऐसे लेख पढ़ने की कोई जरूरत नहीं होती।
और जो साहित्यशावक ईमानदारी वगैरह के आले में पड़े हों उन्हें भी कहना ज़रूरी समझता हूं कि जो ‘‘मैं‘‘ टीवी में आता हूँ वह ‘‘मैं‘‘ वह ‘‘मैं‘‘ नहीं हूँ जो ‘‘मैं‘‘ अखबार में होता हूँ। इसलिये मेरे अखबार वाले ‘‘मैं‘‘ में मीन मेख निकालने से मेरे टीवी वाले ‘‘मैं‘‘ पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। बाकी फिर देख ही ली जाएगी। हाँ।
हाँ, होते हैं दो एक साहित्यकार ऐसे भी जो जैसे जीवन में रहते हैं वैसे ही अखबार में होते हैं और वैसे ही टीवी पर आते हैं। लेकिन उनकी आमद पर न तो गली की लड़कियाँ आभारी होती हैं न पड़ौसी का ‘‘पप्पी‘‘ ताली बजाता है। अब मेरी क्या मजाल कि मैं गली की लड़कियों या पड़ौसी के पप्पी के बारे में अखबार में भी कहूँ:
वो कि जिसकी अपनी कोई अहमियत बाक़ी नही,
उनकी नज़रों में उसी की अहमियत है दोस्तो।
-संजय ग्रोवर
(23.06.1995 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)
मंगलवार, 22 जून 2010
साहित्य में फिक्सिंग
साहित्य में फिक्सिंग अभी उस स्तर तक नहीं पहुंची जिस स्तर तक क्रिकेट में पहुंच गयी लगती है। यहां मामला कुछ अलग सा है। किसी नवोत्सुक उदीयमान लेखक को उठने के लिए विधा-विशेष के आलोचकों, वरिष्ठों, दोस्तों आदि को फिक्स करना पड़ता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो उसके उदीयमान लेखक होने की संभावनाएं अत्यंत क्षीण हो जाती हैं। यहां तक कि उसे समाज से कटा हुआ, जड़ों से उखड़ा हुआ, जबरदस्ती साहित्य में घुस आया लेखक करार दिया जा सकता है।
जिस तरह नेतागण अकसर पूड़ी-साग-लड्डू का प्रलोभन देकर गांवों और कस्बों से भीड़ मंगवा कर रैली के नाम पर अपना शक्ति-प्रदर्शन करते हैं उसी तरह नवोदित लेखक अपने या प्रकाशक के खर्चे पर आलोचकों, अध्यक्षों, रूठे हुओं, जीभ-लपोरूओं और फोटू-खिंचवाईयों को मारूतियों में मंगवा कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। यह बात दीगर है कि उसमें प्रतिभा कम प्रदर्शन ज़्यादा होता है।
इस तरह गोष्ठियों आदि से नया लेखक चर्चा में आने लगता है। जैसे कि नगर स्तर का कोई खिलाड़ी रणजी ट्राफी में स्थान पा गया हो। अब यह लेखक अपना प्रथम संग्रह छपवाने की तैयारी पर उतर आता है।
इसके लिए तरह-तरह के दाव-पेंच अपनाने होते हैं। मजबूरी में पचास तरह के झूठ भी बोलने पड़ते हैं। हर आलोचक को पितामह, हर वरिष्ठ साहित्यकार को गुरू, हर संपादक को अभिभावक और हर प्रकाशक को बाप बनाना पड़ता है। लेखक के दिल में एक यही तसल्ली रहती है कि कल को अगर मैं बड़ा और पॉपुलर लेखक बन गया तो यही पितामह, गुरू और बाप लोग मेरी चौखट पर माथा रगड़ेंगे। रिश्तों के विलोमांतर का मध्यांतर खुद-ब-खुद मर जाएगा।
साहित्यिक फिक्सिंग में मामला पैसों पर कम ही आधारित होता है। यहां सफलता का मंत्र होता है कि कौन किसको कब कितना ‘ऑब्लाइज‘ कर सकता है। एक संपादक अगर आपको सदी का सर्वाधिक चर्चित लेखक घोषित करता है तो आपका भी ‘फिक्स्ड-फर्ज़‘ बनता है कि आप ऐसा माहौल बनाएं कि उस संपादक का नाम पद्मश्री, ज्ञानपीठ या ऐसे ही किसी और तोप-सम्मान या पुरस्कार के लिए न सिर्फ नामित हो जाए बल्कि येन-केन-प्रकारेण उसे यह पुरस्कार मिल कर ही रहे।
इसी तरह एक विचारक आपको अपने घर पर एक गंभीर गोष्ठी में आमंत्रित करता है तो ज़ाहिर है कि आपको भी अपने घर पर होने वाली गोष्ठी को इतना ‘स्तरीय‘ बताना व बनाना पड़ेगा कि उसमें आपके महान विचारक वह मित्र भी निःसंकोच शिरकत कर सकें। आपका एक अन्य पत्रकार मित्र इसमें यह कर सकता है कि गोष्ठी की धांसू रपट बना कर सभी बड़े-बड़े अखबारों में छपवा दें। बदले में आप उसे शहर का सबसे बड़ा खोजी, प्रामाणिक और ईमानदार पत्रकार बता सकते हैं।
आपकी पहली पुस्तक के लोकार्पण के वक्त ये सारी ‘फिक्सिंग‘ ही तो काम आती है। आप अपने विश्वासपात्र साहित्यकारों को लोकार्पण समारोह का मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि, अध्यक्ष, संचालक और वक्ता के तौर पर ‘फिक्स‘ कर सकते हैं। हल्के-फुल्के मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों की ‘फिक्सिंग‘ बतौर श्रोता कर सकते हैं। इस फिक्सिंग का फायदा यह होता है कि आलोचक आपकी रचना की एक भी पंक्ति पढ़े बिना आपको कालजयी लेखक या महाकवि घोषित कर देता है। हार कर पड़ोसी, मित्र और रिश्तेदार भी आपको इंटेलैक्चुअल मान लेते हैं क्योंकि बदले में आप भी उन्हें इंटेलीजेण्ट कह देते हैं। आखिरकार वे आप जैसे महाकवि की रचनाएं जो पढ़ते हैं।
जो लेखक संपादक को तीन नए लेखकों की रचनाएं मुफ्त में मुहैय्या करवाता है, संपादक उसे अच्छा मेहनताना देने में संकोच नहीं करता। फिक्सिंग के इस फलसफे का नतीजा आखिरकार यह होता है कि वरिष्ठ बन चुका नया लेखक एक दिन संपादक की कुर्सी पर आ विराजता है। और उसके सामने फिक्सिंग की कई नयी संभावनाएं खुल जाती हैं। जो पेशकश वह लेखक होते समय संपादको/मालिकों के सम्मुख रखा करता था वैसी ही पेशकश उसके सामने रखी जाने लगती हैं।
शायद क्रिकेट में भी खिलाड़ी से कप्तान बने व्यक्ति के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही होता हो। मगर क्रिकेट में जैसे ही राज़ खुलने लगते हैं तो कुछ दिन तो खिलाड़ियों को जनता को मुंह दिखाना मुश्किल हो जाता है। मगर साहित्य में ऐसा कुछ नहीं है। जो जितना ज्यादा विवादास्पद है उतना ही ज्यादा मशहूर है। तिस पर साहित्य में न तो अम्पायर होते हैं न कंट्रोल बोर्ड। अगर आलोचक को हम अम्पायर मानें तो मानना होगा कि फिक्सिंग साहित्य के खेल का एक अनिवार्य तत्व है।
-संजय ग्रोवर,
(जून 2000 में अप्रस्तुत फीचर्स द्वारा प्रसारित एवं कई छोटे-बड़े अखबारों में प्रकाशित)
जिस तरह नेतागण अकसर पूड़ी-साग-लड्डू का प्रलोभन देकर गांवों और कस्बों से भीड़ मंगवा कर रैली के नाम पर अपना शक्ति-प्रदर्शन करते हैं उसी तरह नवोदित लेखक अपने या प्रकाशक के खर्चे पर आलोचकों, अध्यक्षों, रूठे हुओं, जीभ-लपोरूओं और फोटू-खिंचवाईयों को मारूतियों में मंगवा कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। यह बात दीगर है कि उसमें प्रतिभा कम प्रदर्शन ज़्यादा होता है।
इस तरह गोष्ठियों आदि से नया लेखक चर्चा में आने लगता है। जैसे कि नगर स्तर का कोई खिलाड़ी रणजी ट्राफी में स्थान पा गया हो। अब यह लेखक अपना प्रथम संग्रह छपवाने की तैयारी पर उतर आता है।
इसके लिए तरह-तरह के दाव-पेंच अपनाने होते हैं। मजबूरी में पचास तरह के झूठ भी बोलने पड़ते हैं। हर आलोचक को पितामह, हर वरिष्ठ साहित्यकार को गुरू, हर संपादक को अभिभावक और हर प्रकाशक को बाप बनाना पड़ता है। लेखक के दिल में एक यही तसल्ली रहती है कि कल को अगर मैं बड़ा और पॉपुलर लेखक बन गया तो यही पितामह, गुरू और बाप लोग मेरी चौखट पर माथा रगड़ेंगे। रिश्तों के विलोमांतर का मध्यांतर खुद-ब-खुद मर जाएगा।
साहित्यिक फिक्सिंग में मामला पैसों पर कम ही आधारित होता है। यहां सफलता का मंत्र होता है कि कौन किसको कब कितना ‘ऑब्लाइज‘ कर सकता है। एक संपादक अगर आपको सदी का सर्वाधिक चर्चित लेखक घोषित करता है तो आपका भी ‘फिक्स्ड-फर्ज़‘ बनता है कि आप ऐसा माहौल बनाएं कि उस संपादक का नाम पद्मश्री, ज्ञानपीठ या ऐसे ही किसी और तोप-सम्मान या पुरस्कार के लिए न सिर्फ नामित हो जाए बल्कि येन-केन-प्रकारेण उसे यह पुरस्कार मिल कर ही रहे।
इसी तरह एक विचारक आपको अपने घर पर एक गंभीर गोष्ठी में आमंत्रित करता है तो ज़ाहिर है कि आपको भी अपने घर पर होने वाली गोष्ठी को इतना ‘स्तरीय‘ बताना व बनाना पड़ेगा कि उसमें आपके महान विचारक वह मित्र भी निःसंकोच शिरकत कर सकें। आपका एक अन्य पत्रकार मित्र इसमें यह कर सकता है कि गोष्ठी की धांसू रपट बना कर सभी बड़े-बड़े अखबारों में छपवा दें। बदले में आप उसे शहर का सबसे बड़ा खोजी, प्रामाणिक और ईमानदार पत्रकार बता सकते हैं।
आपकी पहली पुस्तक के लोकार्पण के वक्त ये सारी ‘फिक्सिंग‘ ही तो काम आती है। आप अपने विश्वासपात्र साहित्यकारों को लोकार्पण समारोह का मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि, अध्यक्ष, संचालक और वक्ता के तौर पर ‘फिक्स‘ कर सकते हैं। हल्के-फुल्के मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ोसियों की ‘फिक्सिंग‘ बतौर श्रोता कर सकते हैं। इस फिक्सिंग का फायदा यह होता है कि आलोचक आपकी रचना की एक भी पंक्ति पढ़े बिना आपको कालजयी लेखक या महाकवि घोषित कर देता है। हार कर पड़ोसी, मित्र और रिश्तेदार भी आपको इंटेलैक्चुअल मान लेते हैं क्योंकि बदले में आप भी उन्हें इंटेलीजेण्ट कह देते हैं। आखिरकार वे आप जैसे महाकवि की रचनाएं जो पढ़ते हैं।
जो लेखक संपादक को तीन नए लेखकों की रचनाएं मुफ्त में मुहैय्या करवाता है, संपादक उसे अच्छा मेहनताना देने में संकोच नहीं करता। फिक्सिंग के इस फलसफे का नतीजा आखिरकार यह होता है कि वरिष्ठ बन चुका नया लेखक एक दिन संपादक की कुर्सी पर आ विराजता है। और उसके सामने फिक्सिंग की कई नयी संभावनाएं खुल जाती हैं। जो पेशकश वह लेखक होते समय संपादको/मालिकों के सम्मुख रखा करता था वैसी ही पेशकश उसके सामने रखी जाने लगती हैं।
शायद क्रिकेट में भी खिलाड़ी से कप्तान बने व्यक्ति के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही होता हो। मगर क्रिकेट में जैसे ही राज़ खुलने लगते हैं तो कुछ दिन तो खिलाड़ियों को जनता को मुंह दिखाना मुश्किल हो जाता है। मगर साहित्य में ऐसा कुछ नहीं है। जो जितना ज्यादा विवादास्पद है उतना ही ज्यादा मशहूर है। तिस पर साहित्य में न तो अम्पायर होते हैं न कंट्रोल बोर्ड। अगर आलोचक को हम अम्पायर मानें तो मानना होगा कि फिक्सिंग साहित्य के खेल का एक अनिवार्य तत्व है।
-संजय ग्रोवर,
(जून 2000 में अप्रस्तुत फीचर्स द्वारा प्रसारित एवं कई छोटे-बड़े अखबारों में प्रकाशित)
बुधवार, 16 जून 2010
वाह रे वाह
ग़ज़ल
आन को दें ईमान पे तरजीह, वाह रे वाह
वहशी को इंसान पे तरजीह, वाह रे वाह
मात्रा मोड़ के, कायदे तोड़ के, बोले गुरजी
दीजो बहर को ज्ञान पे तरजीह, वाह रे वाह
ख़ुद तो ‘सुबहू’, ‘ईमां’, ‘सामां’ लिखके खिसके-
‘नादां’ को ’नादान’ पे तरजीह, वाह रे वाह
चार छूट जब तुमने ली, दो हम क्यंू ना लें !?
गुज़रे को उन्वान पे तरजीह, वाह रे वाह
संस्कृत बोलो, फ़ारसी बोलो, ख़ुश भी हो लो
मुश्किल को आसान पे तरजीह, वाह रे वाह
अढ़सठ तमग़े, साठ डिग्रियां, बातें थुलथुल
मैल को जैसे कान पे तरजीह, वाह रे वाह
अकादमिक बाड़े में अदब के साथ कबाड़े-
रट्टू को गुनवान पे तरजीह, वाह रे वाह
दुधमुही मूरत, मीठा साग़र, अफ़ीमी सीरत-
सूरत को विज्ञान पे तरजीह, वाह रे वाह
सूरत-मूरत, छबियां-डिबियां, मिलना-जुलना
ज़ाहिर को ईमान पे तरजीह, वाह रे वाह
गुरजी नुक्ते के क़ायल और मैं गुरजी का
सो नुक्ताचीं तान के तरजीह, वाह रे वाह
-संजय ग्रोवर
(गुरजी=गुरुजी=उस्ताद)
आन को दें ईमान पे तरजीह, वाह रे वाह
वहशी को इंसान पे तरजीह, वाह रे वाह
मात्रा मोड़ के, कायदे तोड़ के, बोले गुरजी
दीजो बहर को ज्ञान पे तरजीह, वाह रे वाह
ख़ुद तो ‘सुबहू’, ‘ईमां’, ‘सामां’ लिखके खिसके-
‘नादां’ को ’नादान’ पे तरजीह, वाह रे वाह
चार छूट जब तुमने ली, दो हम क्यंू ना लें !?
गुज़रे को उन्वान पे तरजीह, वाह रे वाह
संस्कृत बोलो, फ़ारसी बोलो, ख़ुश भी हो लो
मुश्किल को आसान पे तरजीह, वाह रे वाह
अढ़सठ तमग़े, साठ डिग्रियां, बातें थुलथुल
मैल को जैसे कान पे तरजीह, वाह रे वाह
अकादमिक बाड़े में अदब के साथ कबाड़े-
रट्टू को गुनवान पे तरजीह, वाह रे वाह
दुधमुही मूरत, मीठा साग़र, अफ़ीमी सीरत-
सूरत को विज्ञान पे तरजीह, वाह रे वाह
सूरत-मूरत, छबियां-डिबियां, मिलना-जुलना
ज़ाहिर को ईमान पे तरजीह, वाह रे वाह
गुरजी नुक्ते के क़ायल और मैं गुरजी का
सो नुक्ताचीं तान के तरजीह, वाह रे वाह
-संजय ग्रोवर
(गुरजी=गुरुजी=उस्ताद)
मंगलवार, 15 जून 2010
शास्त्रीय गाल-वादन की बुनियादी समझ का हंगामा
कन्फ़्यूज़न में रणनीति है या रणनीति में कन्फ़्यूज़न !?--2
जैसा कि वादा था कि दूसरे लेख के साथ इस क़िस्से को ख़त्म करेंगे। अगर ‘हंस’ में अलंकारिक भाषा में कोई प्रतिक्रिया आती भी है तो उसे नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की जाएगी।
(जेंडर जिहाद, हंस, जून 2010)
शास्त्रीय गाल-वादन की बुनियादी समझ का हंगामा
बिना नाम लिए बात करने में कम-अज़-कम दो तरह की आसानियां हैं। एक तो आप असुविधाजनक सवालों से आसानी से कन्नी काट सकते हैं। दूसरे, हवा में आरोपों के गोले छोड़ सकते हैं। पाठक बैठे अंदाज़े लगाते रहेंगे कि यार यह इसके लिए छोड़ा गया होगा और वह उसके लिए। शास्त्रीय गाल-वादन में इस युक्ति का विशेष महत्व मालूम होता है। आखिर कोई गाल वादन इतना शास्त्रीय बनता कैसे होगा कि बिलकुल दूसरों जैसी या उनसे भी ‘बेहतर’ ‘चारित्रिक योग्यताओं’ के बावजूद ख़ुदको दूसरों से अलग दिखाकर पूरे आत्मविश्वास से दूसरों को गरिया सके।
मेरे किसी मित्र ने एक लिंक भेजा है जिसमें मेरे प्रिय एंकर रवीशकुमार कॉलमिस्ट का परिचय देते हुए कह रहे हैं कि ‘हंस’ में इनके लेख छपते ही हंगामा मच गया। कमाल है ! हम भी ‘हंस’ पढ़ते हैं। ब्लॉग और टी वी भी देखते हैं कभी-कभार। मगर.....
जंगल में मोर नाचा किसी ने न देखा !
हम (तुम?) जो थोड़ी-सी पीके ज़रा झूमें...सबने देखा....
ज़ाहिर है कि इसे समझने के लिए ‘बुनियादी समझ’ चाहिए। ‘पीली छतरी वाली लड़की’ पर हंगामा मचा, कोई मेरे घर पर बताने नहीं आया। ख़ुद ही पता चल गया। ‘खांटी’ पर हंगामा मचा। अभी अशोक चक्रधर हिंदी अकादमी के कुछ बने, हंगामा हुआ। उनके पुरस्कार किसीने लिए, किसी ने नहीं लिए। हंगामा मचा। सबकी ख़बर मिली। लेकिन उक्त ‘हंगामा’ बड़ा अद्भुत, अमूर्त्त और विलक्षण रहा होगा। सच है, शास्त्रीय गाल-वादन के लिए ‘बुनियादी समझ’, ‘मेहनत’ और ‘टीम-स्प्रिट’ तो चाहिए ही। चलिए, अब हम भी बिना नाम लिए कॉलमी जेण्डर जिहाद पर बात करते हैं। बीच में कोई ‘रणनीति’ हो जाए तो माफ़ कर दीजिएगा, कभी-कभी मैं भी तात्कालिक असर में आ जाता हूं।
(बीच-बीच में कॉलमिस्ट ने किन्हीं भावुक-हृदयों को संबोधित किया है। यहां मैंने उन भावुक-हृदयों की तरफ़ से किन्हीं फ़िल्मी-हृदयों को संबोधित किया है।)
स्त्री मित्र--अच्छे या अंधे !?
आप फिल्मी हृदयों को अच्छे स्त्री-मित्र चाहिए क्यों ? उसके लिए आपमें भी थोड़ी पात्रता होनी चाहिए या नहीं !? या सब कुछ हंगामें में चाहिए ! या इसलिए कि आप गंदे स्त्री मित्रों की हरकतों का बदला अच्छे स्त्री मित्रों से लेकर उसे उपलब्धि समझने लगें ! जिंदगी कोई फंतासी नहीं है कि एक दिन यकायक अच्छे स्त्री मित्रों की बारिश शुरु हो जाएगी। पहले अच्छे इंसान पैदा कीजिए (बतर्ज़ ‘तसलीमा नसरीन बनाईए), अच्छे मित्र अपने-आप पैदा हो जाएंगे। वैसे आप साहित्य नगरिया की पतली गलियों में भी झांके तो पाएंगे कि यहां वास्तव में न किसी को अच्छे स्त्री मित्र चाहिएं न अच्छे पुरुष मित्र न अच्छे मित्र। अच्छे के नाम पर सबको अंधे मित्र चाहिए। अभी मेरा एक लेख कहीं छपे और मेरा कोई मित्र अपने वास्तविक विचार प्रकट करते हुए असहमति में मेरे लेख की धज्जियां उड़ा दे तो ! कोई बड़ी बात नहीं कि मैं उससे दोस्ती तोड़ने तक पर आमादा हो जाऊं। दोस्ती के नाम पर सभी को अंधी सहमति चाहिए। कभी कोई शोध हुई तो यह भी निकलकर आ सकता है कि हिंदी साहित्य की सबसे ज़्यादा दुर्गति ‘मित्रवाद’ के चलते हुई है। फिर हमी चौराहे पर वंशवाद, भाई-भतीजावाद और पता नहीं किस-किसवाद को गालियां देते फिरते हैं। फिर औरतें क्यों अपवाद हों !? वे क्या आकाश से टपकी हैं ! उन्हें भी अंधे मित्र चाहिएं। कुछ उदाहरण रख रहा हूं। कोई फैसला नहीं दे रहा। आप सोचिए कि ऐसी महिलाओं की हां में हां मिलाने वाले मित्र अच्छे होंगे या अंधे:-
1.----एक बहिन अपने भाई से चाहती है कि वह ससुराल में उसपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ़ उसका साथ दे। भाई अपना बहुत कुछ दांव पर लगाकर ऐसा करता भी है। तत्पश्चात बहिन यह चाहती है कि भाई ससुराल के हर रीति-रिवाज को भी बिलकुल पारंपरिक ढंग से निभाए। भाई कहता है कि दोनों में से एक काम करा लो। या तो प्रगतिशील ही बना लो या रुढ़िवादी। बहिन को जवाब रास नहीं आता। धीरे-धीरे भाई उसे पागल लगने लगता है।
2.----एक पति घर आता है और चाहता है कि पत्नी किसी भी हालत में हो, तुरंत हाज़िर होकर उसकी ‘थकान’ मिटाए। हम कहते हैं कि ये ‘मेल शाविनिस्ट’ पत्नी को सेक्स ऑबजेक्ट से ज़्यादा कुछ समझते ही नहीं। मुझे इससे कोई असहमति नहीं। पर एक थोड़ी जुदा स्थिति में देखिए। पत्नी को करने को कुछ ख़ास नहीं है। घर में ज़्यादIतर काम नौकरों के हवाले हैं। पत्नी का अधिकांश समय किटी पार्टी में, सोशल नेट वर्किंग साइटस् पर, चैट में या अन्य समारोहों में बीतता है। थका-मांदा पति रात को घर में घुसता है। पर पत्नी के ‘मूड’ का साथ नहीं दे पाता। यह पत्नी यह भी चाहती है कि पति कुछ भी करे पर इतना कमाकर लाए कि शानो-शौकत में कोई कमी न रहे। कई बार ऐसी पत्नियां यह भी चाहतीं हैं कि उनके पति दूसरी औरतों से फालतू बात भी न करें। अब यह स्त्री पति को नपुंसक, नाकारा, बेवफा, पैसे का लालची आदि-आदि कहकर दूसरे पुरुषों से संबंध बनाना शुरु कर देती है। क्या यह स्त्री पुरुष को सेक्स ऑबजेक्ट से ज़्यादा कुछ समझ रही है !?
3.-----स्त्रिओं पर शारीरिक हिंसा होती है, मैं भी कहता हूं आप भी कहते हो, भई, यह तो बहुत बुरी बात है। मैं भी कहूंगा, आप भी कहेंगे कि और कहीं तो ज़ोर चला नहीं, कमज़ोर सामाजिक स्थिति वाली कमज़ोर बीवी पर गुस्सा निकाल लिया। पर क्या आपने स्त्रियों को अपने बच्चों को धुनते देखा है ! स्त्री उस मर्द से अलग क्या कर रही है ? आप बच्चे की तुलनात्मक स्थिति देखिए। बच्चा आपसे तलाक नहीं ले सकता। वह मां-बाप नहीं बदल सकता। 20-25 साल की स्त्री खुद भी समझदार हो गयी होती है। साथ में बहुत से मां-बाप कम-अज़-कम इतना विकल्प तो देते ही हैं कि इन-इनमें से एक चुन लो। बच्चे के पास यह भी नहीं है। उससे पूछा तक नहीं गया कि वह इस दुनिया और इस घर में आना चाहता है कि नहीं। उसे (अगर वह लड़का है) यह तक नहीं बताया गया कि ये जो बारह बहिनें तेरी पहले से पैदा हो रखीं हैं और जिनके पैदा होने में तेरा रत्ती भर भी लेना देना नहीं है, इनकी ज़िम्मेदारी भी तेरी है। अगर तू इनकी समाजानुसार व्यवस्था करने में चूक गया तो क्रांतिकारी से क्रांतिकारी और मौलिक से मौलिक लोग भी तुझे ही गालियां देने वाले हैं।
तिसपर हम यह तो न कहें कि स्त्री ज़्यादा संवेदनशील, ईमानदार वगैरह होती है। क्यों झूठ बोल-बोलकर उसे फिर से ‘देवी’ बनाएं और एक नए जाल में फंसा दें ! लेकिन नहीं। ज़्यादा संभावना यही है कि ऐसे में भी स्त्री को अंधी तारीफ़ करने वाला ही ‘सच्चा स्त्री-मित्र’ लगने वाला है। अपवादों को ज़रा एक तरफ रख लें।
तसलीमा नसरीन से आपकी (दयनीय) घृणा
वही पुराना राग विरोधाभास। पहले वे ‘आपकी प्रिय लेडी’ कहकर तसलीमा के प्रति अपनी घृणा व्यक्त करते हैं। फिर वे चार लाइनों बाद कहते हैं तसलीमा (और कुछ अन्य सफल महिलाओं के नाम) जैसी पढ़ी-लिखी, स्वाबलंबी, शहरी आधुनिकाएं बनाईए, चुनौती वे अपने-आप खड़ी कर देंगी। आंकड़ा और शोध-पसंद, सरलीकरण के प्रबल विरोधी, फिल्मी-हृदय आप यह नहीं सोच रहे कि पढ़ी-लिखी महिलाएं आज भी कुछ कम नहीं पर आज भी ज़्यादातर का लक्ष्य कैरियर और शादी पर ख़त्म हो जाता है। जिसका एक कारण, धर्म उनके और उनके घर वालों के सिर पर ख़ून की तरह सवार है। दूसरी तरफ भंवरीदेवी और फूलनदेवी जैसी गांव की बेपढ़ी-लिखी औरतें आपके दिए कई उदाहरणों से बड़ी चुनौतियां खड़ी कर दिखाती हैं। तसलीमाएं ‘बनाने’ से नहीं बनतीं (जैसा कि आज-कल कुछ लोगों ने समझ लिया है), पैदा होतीं हैं। कभी पेट से भी, परिस्थितियों से भी, निर्णय-क्षमता, विवेक, विद्रोह, सोच और साहस से भी। तसलीमा कोई आई.पी.एल का क्रिकेट मैच नहीं है कि इधर पचास प्रायोजक मिले और उधर तसलीमा तैयार। यह कोई प्रोपर्टी डीलर की डीलिंग भी नहीं है कि ‘‘ ओ बादशाहो, तुसी बस थोड़ी जई रणनीत्ति, थोड़ी डिग्री-डुगरी, थोड़ी इनफार्मेशन, थोड़ी फ़िलॉस्फी पाओ, तिन दिन विच तसलीम्मा बणाके त्वाडे हथ विच दे दांगे। अज-कल ते भतेरे लोग बणवा रए ने। गल्फ विच साडी सिस्टर कंसर्न हैगी, ओदर वी दो-तिन्न बणा के दित्तीयां ने। बड़ी डिमांड हैगी बाऊजी, हर संपादुक आपणी निजी तसलीम्मा चांदा ए। वेखणा बाऊजी, एक दिन्न एन्नीयां तसलीम्मा बजार विच उतार दांगे कि लोग असली तसलीम्मा नू भुल्ल जाणगे।’’ (‘‘साहिबान, आप बस थोड़ी-सी रणनीति, थोड़ी डिग्रीयां, थोड़ी सूचनाएं, थोड़ा दर्शन डालिए। तीन दिन में तसलीमा बनाकर आपके हाथ में दे देंगे। आज-कल तो बहुत लोग बनवा रहे हैं। गल्फ़ में हमारी सिस्टर कन्सर्न है, वहां भी दो-तीन बनाकर दी हैं। बहुत डिमांड है बाऊ जी, हर संपादक अपनी निजी तसलीमा चाहता है। देखना बाऊजी, एक दिन इतनी तसलीमाएं बाज़ार में उतार देंगे कि लोग असली तसलीमा को भूल जाएंगे।’’)
अच्छा माफ कीजिएगा, धर्म जब आप फ़िल्म-लिंकित-हृदयों के लिए सिर्फ एक रणनीति है फिर तसलीमा से इतना गुस्सा खाने का मतलब और मक़सद !? फ़िर तो दोनों एक ही बिरादरी के हुए ना !
पर मुश्किल यह है कि तसलीमा से आपकी घृणा छुपाए नहीं छुपती।
परफेक्ट बदल
यह क्या होता है ? और बिना इसे आज़माए आप स्टंट-फिल्म-लिंकित-हृदयों को पता कैसे चलता है कि यह परफेक्ट नहीं है ! क्या आपको लगता है कि दुनिया में आज जितनी भी व्यवस्थाएं लागू हैं सब एक ही बार में ‘परफेक्ट’ बना कर लागू कर दी गयीं थीं !?
नास्तिक और धर्म-विमुख
इशारों में दो-चार नास्तिकों की बात करके आपने ‘सिद्ध’ कर दिया कि नास्तिक भी स्त्री का शोषण करते हैं अतः यह ऑप्शन यहीं ख़त्म ! ऐसा ही करतब आपने पिछली क़िस्तों में पश्चिमी पुरुषों को लेकर कर दिखाया है। आप नास्तिकों से चमत्कार की उम्मीद क्यों रखते हैं ? इनमें से भी बहुत से आस्तिकों के घरों में पले-बढ़े होते हैं। बहुत से किन्हीं राजनीतिक दलों के संपर्क में आ जाने के चलते नास्तिक ‘बन’ गए होते हैं। फिर आप तो आंकड़ा और शोध-पसंद, सरलीकरण के विरोधी, फिल्मी-हृदय हैं। मैंने सुना है कि आप लोग कुछ परसेंटेज वगैरह निकाला करते हैं कि फलां समाज में नास्तिकों का प्रतिशत इतना है, फलां देश में इतना है। नास्तिकों में स्त्री-शोषकों का प्रतिशत इतना है, वगैरह। अपने ही सिद्धांतों के खिलाफ तो मत जाईए !
आप एक बार अगर अपने बारे में भी बता दें कि आप नास्तिक हैं, आस्तिक हैं, धर्म-प्रमुख हैं, विमुख हैं या कुछ और हैं तो आगे से आपको समझने में आसानी रहेगी। चलिए, छोड़िए। समझिए कि मेरी रणनीति थी।
आपकी पितृसत्ता
कई बार आपने कहा कि स्त्री-समस्याओं के लिए इस्लाम नहीं पितृसत्ता या दूसरे धर्म ज़िम्मेदार है। सवाल यह उठता है कि जिस वक्त ‘पवित्र ग्रंथ’ लिखे गए उस वक्त पितृसत्ता थी या मातृसत्ता ! लिखने वाला इंसान था या कोई अदृश्य शक्ति ? अगर इंसान ने लिखे तो सबको मालूम है कि इंसान की अपनी सीमाएं हैं और वह ग़लतियां करता है। सुघारता भी है। जो न सुधारने पे अड़ जाए, उसे क्या कहें ? अगर अदृश्य शक्ति ने ग्रंथ लिखे तो उसे पता होना ही चाहिए था कि भविष्य में पितृसत्ता भी होनी है और दूसरे धर्म भी। सो दूरदर्शिता तो यही होती कि धर्म ग्रंथ इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए लिखे जाते।
आपका युटोपिया
सारे मुसलमान अपने सारे काम-धंधे छोड़कर पहले अरबी सीखें। फिर कुरान पढ़ें। क्या गारंटी है कि अरबी सीखने के बाद भी कुरान के वे वही अर्थ पकड़ पाएंगे जो लिखने वाले ने लिखे ! जो नहीं समझेंगे वे किसकी मदद लेंगे ? मुल्ला-मौलवियों की या आपकी ! दूसरे लोग और दूसरे धर्म कैसे पता लगाएंगे कि आप लोग उन्हें सही अर्थ बता रहे हैं !? यानि कि वे भी अरबी सीखें और कुरान पड़ें। कितने सौ साल लगेगें इसमें ? यह युटोपिया है कि उसके भी पितामह !?
आपकी तर्कप्रणाली
कृष्णबिहारी का आपने बिना नाम लिए जवाब दिया और उन पर संघी होने का अप्रत्यक्ष आरोप भी लगा दिया। उनकी मूल आपत्ति का जवाब आज तक नहीं दिया कि दूसरे देशों में बुरक़ा कहां से आया। मैं समझता हूं कि कृष्णबिहारी का बड़प्पन है कि बदले में उन्होंने आप पर तालिबानी आतंकवादी, पाक़िस्तानी जासूस या इस्लाम प्रचारक होने का आरोप नहीं लगाया। बहुत ख़ूब तर्क प्रणाली है कि नाम लिए बिना आधा-अधूरा जवाब दो और नुक्ते जैसी कुछ ग़लती निकालकर अगले का पूरा विचार खारिज़ कर दो। जैसा कि इकबाल हिंदुस्तानी नामक पत्र लेखक के साथ किया गया।
(इस प्रसंग का बाक़ी हिस्सा एक रणनीति के तहत सुरक्षित।)
किसी को संघी, पंथी या तालिबानी बता देना कोई तर्क या जवाब है क्या ?
बच्चों को ऐसा करते तो देखा भी था। बहस के नाम पर चलाए जा रहे कालम में बहस से बचने की हर तरकीब करने से पाठकों को क्या संदेश मिलेगा आखि़र ?
आपकी भाषा
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स्त्रियों से संवाद की आपकी समस्या
शाह बानो का हवाला देकर आपने जो समस्या और तत्काल पश्चात जो समाधान बताए, उन्हें फिलहाल अपनी एक रणनीति के तौर पर मैं स्वीकार कर लेता हूं। आपको मेरी एक सलाह है। जिन स्त्रियों को आप संबोधित कर रहे हैं, (वे जहां कहीं भी संबोधित हो रहीं हों) उन्हें चार पुरुषों की कामना के क़िस्से और स्त्री की भिन्न-भिन्न पुरुषों से शारीरिक संतुष्टि के तुलनात्मक अध्ययन वाले हिस्से संप्रेषित न करें (शौहर को दुनियावी ख़ुदा समझने वाली औरतों-मात्र को संबोधित कालम में ऐसी बातें ! तौबा ! तौबा !)। मुझे नहीं लगता कि इतने विराधाभासी विचार एक साथ अनपढ़ और धार्मिक स्त्रियां भी झेल पाएंगीं। कोई लफड़ा न खड़ा हो जाए ! और अगर चार पुरुषों वाले आयडियाज़ वे स्त्रियां बर्दाश्त कर सकतीं हैं तो आपकी ज़रुरत ही क्या है ! तसलीमा पहले ही सब कुछ कह गयीं हैं। और अगर मामला वैसा ही है जैसा आप कह रहे हैं और आपको वाकई उन स्त्रियों की चिंता है तो मेरी एक और सलाह है, माइंड मत कीजिएगा। मुझे नहीं लगता उन स्त्रिओं ने ‘हंस’ का नाम भी सुना होगा (यादव जी क्षमा करें)। कहीं एक साल बेकार न चला गया हो। मुझे लगता है वे स्त्रियां उन्हीं दुकानों से लाकर वही क़िताबें पढ़ती होंगीं जो आप टीवी में मेरे प्रिय एंकर रवीश कुमार को दिखा रहे थे। आप वैसी ही साज-सज्जा में अपने लेख छपवाकर उन दुकानों में रखवाईए, लोग ज़रुर पढ़ेंगे आपको। जावेद अख्तर तक को फतवा मिल गया पर आपके इतने हंगामें के बाद भी किसी ने दो शब्द न बोले। ब्लाग पर भी एक-दो लड़कियां लिख रहीं हैं आपसे मिलते-जुलते विषयों पर। एक कट्टरपंथ लानत-मलामत कर रहा है तो दूसरा समर्थन कर रहा है। कुछ ऐसे ‘सरफिरे’ युवा हौसला भी बढ़ा रहे हैं जो तसलीमा की ही तरह सब धर्मों को एक ही ठेंगे पर रखते हैं। आपको तो ब्लॉग पर भी शायद ऐसा वाक़या पेश नहीं आया। हो सकता है आपको मुल्ला-मौलवी भी सीरियसली श्रद्धापूर्वक लें। प्रयोग करने में क्या हर्ज़ है ?
विवाह संस्था से मुक्त कराएं !
वैसे एकाध सवाल से कन्नी काटने की इजाज़त अपन को भी नहीं होनी चाहिए क्या ? अपन चलते हैं। पर रणनीति !? क्यों भई, आप फ़िल्मी हृदय ऐसा क्यों चाहते है कि जो लड़कियां विवाह करना चाहती हैं उन्हें भी विवाह न करने दें हम ! अब क्या ‘प्रगतिशील खाप पंचायतें’ लगवाने का इरादा है !? यह क्या हुआ ? कौन-सा मानवाधिकार हुआ यह ? राइट टू इनफॉर्मेशन है ? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ? क्या है यह ? मेरी तो पूरी नालेज ही जवाब दे रही है। अरे, आपने कहा होता कि जो लड़कियां शादी नहीं करना चाहतीं, उनका साथ देकर दिखाएं । तब तो अपना सोचना भी बनता था। आपने तो सवाल ही उल्टा फेंक दिया। वैसे अपन पाठकों का भी पूछना बनता है कि आपने लिखने के अलावा, स्त्री-मुक्ति के संदर्भ में, ऐसे कौन-से क्रांतिकारी फैसले लिए हैं और उनपर अमल किया है ज़िंदगी में, कि आपके लेखन को गाल-वादन न माना जाए !?
आपका गाल-वादन विशिष्ट क्यों ?
क्या सिर्फ इसलिए कि आप को तीन पन्ने मिले हुए हैं और अपन (यानि वे पाठक-लेखक जिन्हें ‘अपना मोर्चा’ और ‘बीच बहस में’ पहुंचने तक के लिए ड्रिबलिंग करनी पड़ रही है) को छपन तक के लाले हैं !? यह तो कोई बहुत लोकतांत्रिक एप्रोच नहीं मालूम होती ! राजसत्ता की तानाशाही टाइप लगती है। और कोई फ़र्क़ हो तो बताएं। इसी लिखे को आप सेमिनार में बोलने या भाषण देने को गाल-वादन से ऊपर की कोई चीज़ मानना चाहें तो यह आपकी ‘बुनियादी समझ’ है। वैसे नेता लोग भी भाषण देने को दूर-दराज़ के बीहड़ इलाकों में जाकर धूप में पसीना निकालते हैं। आइंदा उन्हें गलियाने से पहले तनिक सोचा जाए !
अपनी रणनीति
बिलकुल साफ है कि जब कोई कॉलमिस्ट बिना नाम लिए सवाल या आरोप दागेगा तभी जवाब देंगे, सिर्फ कॉलमिस्ट को। बाक़ी किसी से अपन को कोई मतलब नहीं।
अपन चलते हैं। पीछे संपादक जी जानें, कॉलमिस्ट जानें, वे स्त्रियां जानें। इससे ज़्यादा रिपीटाबाज़ी अपने बस की नहीं।
दुष्यंत के एक शेर का मलीदा पेश है:
हंगामा हो, ना भी हो, हमको लेना-देना क्या-
हंगामें की कहके, अपना नाम होना चाहिए।
वैसे कुछ नादान ऐसे भी होते हैं जो कहते हैं:
हंगामा है क्यूं बरपा, थोड़ी-सी जो पी ली है !
ज़ाहिर है इनमें ‘बुनियादी समझ’ नहीं होती।
-संजय ग्रोवर
जैसा कि वादा था कि दूसरे लेख के साथ इस क़िस्से को ख़त्म करेंगे। अगर ‘हंस’ में अलंकारिक भाषा में कोई प्रतिक्रिया आती भी है तो उसे नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की जाएगी।
(जेंडर जिहाद, हंस, जून 2010)
शास्त्रीय गाल-वादन की बुनियादी समझ का हंगामा
बिना नाम लिए बात करने में कम-अज़-कम दो तरह की आसानियां हैं। एक तो आप असुविधाजनक सवालों से आसानी से कन्नी काट सकते हैं। दूसरे, हवा में आरोपों के गोले छोड़ सकते हैं। पाठक बैठे अंदाज़े लगाते रहेंगे कि यार यह इसके लिए छोड़ा गया होगा और वह उसके लिए। शास्त्रीय गाल-वादन में इस युक्ति का विशेष महत्व मालूम होता है। आखिर कोई गाल वादन इतना शास्त्रीय बनता कैसे होगा कि बिलकुल दूसरों जैसी या उनसे भी ‘बेहतर’ ‘चारित्रिक योग्यताओं’ के बावजूद ख़ुदको दूसरों से अलग दिखाकर पूरे आत्मविश्वास से दूसरों को गरिया सके।
मेरे किसी मित्र ने एक लिंक भेजा है जिसमें मेरे प्रिय एंकर रवीशकुमार कॉलमिस्ट का परिचय देते हुए कह रहे हैं कि ‘हंस’ में इनके लेख छपते ही हंगामा मच गया। कमाल है ! हम भी ‘हंस’ पढ़ते हैं। ब्लॉग और टी वी भी देखते हैं कभी-कभार। मगर.....
जंगल में मोर नाचा किसी ने न देखा !
हम (तुम?) जो थोड़ी-सी पीके ज़रा झूमें...सबने देखा....
ज़ाहिर है कि इसे समझने के लिए ‘बुनियादी समझ’ चाहिए। ‘पीली छतरी वाली लड़की’ पर हंगामा मचा, कोई मेरे घर पर बताने नहीं आया। ख़ुद ही पता चल गया। ‘खांटी’ पर हंगामा मचा। अभी अशोक चक्रधर हिंदी अकादमी के कुछ बने, हंगामा हुआ। उनके पुरस्कार किसीने लिए, किसी ने नहीं लिए। हंगामा मचा। सबकी ख़बर मिली। लेकिन उक्त ‘हंगामा’ बड़ा अद्भुत, अमूर्त्त और विलक्षण रहा होगा। सच है, शास्त्रीय गाल-वादन के लिए ‘बुनियादी समझ’, ‘मेहनत’ और ‘टीम-स्प्रिट’ तो चाहिए ही। चलिए, अब हम भी बिना नाम लिए कॉलमी जेण्डर जिहाद पर बात करते हैं। बीच में कोई ‘रणनीति’ हो जाए तो माफ़ कर दीजिएगा, कभी-कभी मैं भी तात्कालिक असर में आ जाता हूं।
(बीच-बीच में कॉलमिस्ट ने किन्हीं भावुक-हृदयों को संबोधित किया है। यहां मैंने उन भावुक-हृदयों की तरफ़ से किन्हीं फ़िल्मी-हृदयों को संबोधित किया है।)
स्त्री मित्र--अच्छे या अंधे !?
आप फिल्मी हृदयों को अच्छे स्त्री-मित्र चाहिए क्यों ? उसके लिए आपमें भी थोड़ी पात्रता होनी चाहिए या नहीं !? या सब कुछ हंगामें में चाहिए ! या इसलिए कि आप गंदे स्त्री मित्रों की हरकतों का बदला अच्छे स्त्री मित्रों से लेकर उसे उपलब्धि समझने लगें ! जिंदगी कोई फंतासी नहीं है कि एक दिन यकायक अच्छे स्त्री मित्रों की बारिश शुरु हो जाएगी। पहले अच्छे इंसान पैदा कीजिए (बतर्ज़ ‘तसलीमा नसरीन बनाईए), अच्छे मित्र अपने-आप पैदा हो जाएंगे। वैसे आप साहित्य नगरिया की पतली गलियों में भी झांके तो पाएंगे कि यहां वास्तव में न किसी को अच्छे स्त्री मित्र चाहिएं न अच्छे पुरुष मित्र न अच्छे मित्र। अच्छे के नाम पर सबको अंधे मित्र चाहिए। अभी मेरा एक लेख कहीं छपे और मेरा कोई मित्र अपने वास्तविक विचार प्रकट करते हुए असहमति में मेरे लेख की धज्जियां उड़ा दे तो ! कोई बड़ी बात नहीं कि मैं उससे दोस्ती तोड़ने तक पर आमादा हो जाऊं। दोस्ती के नाम पर सभी को अंधी सहमति चाहिए। कभी कोई शोध हुई तो यह भी निकलकर आ सकता है कि हिंदी साहित्य की सबसे ज़्यादा दुर्गति ‘मित्रवाद’ के चलते हुई है। फिर हमी चौराहे पर वंशवाद, भाई-भतीजावाद और पता नहीं किस-किसवाद को गालियां देते फिरते हैं। फिर औरतें क्यों अपवाद हों !? वे क्या आकाश से टपकी हैं ! उन्हें भी अंधे मित्र चाहिएं। कुछ उदाहरण रख रहा हूं। कोई फैसला नहीं दे रहा। आप सोचिए कि ऐसी महिलाओं की हां में हां मिलाने वाले मित्र अच्छे होंगे या अंधे:-
1.----एक बहिन अपने भाई से चाहती है कि वह ससुराल में उसपर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ़ उसका साथ दे। भाई अपना बहुत कुछ दांव पर लगाकर ऐसा करता भी है। तत्पश्चात बहिन यह चाहती है कि भाई ससुराल के हर रीति-रिवाज को भी बिलकुल पारंपरिक ढंग से निभाए। भाई कहता है कि दोनों में से एक काम करा लो। या तो प्रगतिशील ही बना लो या रुढ़िवादी। बहिन को जवाब रास नहीं आता। धीरे-धीरे भाई उसे पागल लगने लगता है।
2.----एक पति घर आता है और चाहता है कि पत्नी किसी भी हालत में हो, तुरंत हाज़िर होकर उसकी ‘थकान’ मिटाए। हम कहते हैं कि ये ‘मेल शाविनिस्ट’ पत्नी को सेक्स ऑबजेक्ट से ज़्यादा कुछ समझते ही नहीं। मुझे इससे कोई असहमति नहीं। पर एक थोड़ी जुदा स्थिति में देखिए। पत्नी को करने को कुछ ख़ास नहीं है। घर में ज़्यादIतर काम नौकरों के हवाले हैं। पत्नी का अधिकांश समय किटी पार्टी में, सोशल नेट वर्किंग साइटस् पर, चैट में या अन्य समारोहों में बीतता है। थका-मांदा पति रात को घर में घुसता है। पर पत्नी के ‘मूड’ का साथ नहीं दे पाता। यह पत्नी यह भी चाहती है कि पति कुछ भी करे पर इतना कमाकर लाए कि शानो-शौकत में कोई कमी न रहे। कई बार ऐसी पत्नियां यह भी चाहतीं हैं कि उनके पति दूसरी औरतों से फालतू बात भी न करें। अब यह स्त्री पति को नपुंसक, नाकारा, बेवफा, पैसे का लालची आदि-आदि कहकर दूसरे पुरुषों से संबंध बनाना शुरु कर देती है। क्या यह स्त्री पुरुष को सेक्स ऑबजेक्ट से ज़्यादा कुछ समझ रही है !?
3.-----स्त्रिओं पर शारीरिक हिंसा होती है, मैं भी कहता हूं आप भी कहते हो, भई, यह तो बहुत बुरी बात है। मैं भी कहूंगा, आप भी कहेंगे कि और कहीं तो ज़ोर चला नहीं, कमज़ोर सामाजिक स्थिति वाली कमज़ोर बीवी पर गुस्सा निकाल लिया। पर क्या आपने स्त्रियों को अपने बच्चों को धुनते देखा है ! स्त्री उस मर्द से अलग क्या कर रही है ? आप बच्चे की तुलनात्मक स्थिति देखिए। बच्चा आपसे तलाक नहीं ले सकता। वह मां-बाप नहीं बदल सकता। 20-25 साल की स्त्री खुद भी समझदार हो गयी होती है। साथ में बहुत से मां-बाप कम-अज़-कम इतना विकल्प तो देते ही हैं कि इन-इनमें से एक चुन लो। बच्चे के पास यह भी नहीं है। उससे पूछा तक नहीं गया कि वह इस दुनिया और इस घर में आना चाहता है कि नहीं। उसे (अगर वह लड़का है) यह तक नहीं बताया गया कि ये जो बारह बहिनें तेरी पहले से पैदा हो रखीं हैं और जिनके पैदा होने में तेरा रत्ती भर भी लेना देना नहीं है, इनकी ज़िम्मेदारी भी तेरी है। अगर तू इनकी समाजानुसार व्यवस्था करने में चूक गया तो क्रांतिकारी से क्रांतिकारी और मौलिक से मौलिक लोग भी तुझे ही गालियां देने वाले हैं।
तिसपर हम यह तो न कहें कि स्त्री ज़्यादा संवेदनशील, ईमानदार वगैरह होती है। क्यों झूठ बोल-बोलकर उसे फिर से ‘देवी’ बनाएं और एक नए जाल में फंसा दें ! लेकिन नहीं। ज़्यादा संभावना यही है कि ऐसे में भी स्त्री को अंधी तारीफ़ करने वाला ही ‘सच्चा स्त्री-मित्र’ लगने वाला है। अपवादों को ज़रा एक तरफ रख लें।
तसलीमा नसरीन से आपकी (दयनीय) घृणा
वही पुराना राग विरोधाभास। पहले वे ‘आपकी प्रिय लेडी’ कहकर तसलीमा के प्रति अपनी घृणा व्यक्त करते हैं। फिर वे चार लाइनों बाद कहते हैं तसलीमा (और कुछ अन्य सफल महिलाओं के नाम) जैसी पढ़ी-लिखी, स्वाबलंबी, शहरी आधुनिकाएं बनाईए, चुनौती वे अपने-आप खड़ी कर देंगी। आंकड़ा और शोध-पसंद, सरलीकरण के प्रबल विरोधी, फिल्मी-हृदय आप यह नहीं सोच रहे कि पढ़ी-लिखी महिलाएं आज भी कुछ कम नहीं पर आज भी ज़्यादातर का लक्ष्य कैरियर और शादी पर ख़त्म हो जाता है। जिसका एक कारण, धर्म उनके और उनके घर वालों के सिर पर ख़ून की तरह सवार है। दूसरी तरफ भंवरीदेवी और फूलनदेवी जैसी गांव की बेपढ़ी-लिखी औरतें आपके दिए कई उदाहरणों से बड़ी चुनौतियां खड़ी कर दिखाती हैं। तसलीमाएं ‘बनाने’ से नहीं बनतीं (जैसा कि आज-कल कुछ लोगों ने समझ लिया है), पैदा होतीं हैं। कभी पेट से भी, परिस्थितियों से भी, निर्णय-क्षमता, विवेक, विद्रोह, सोच और साहस से भी। तसलीमा कोई आई.पी.एल का क्रिकेट मैच नहीं है कि इधर पचास प्रायोजक मिले और उधर तसलीमा तैयार। यह कोई प्रोपर्टी डीलर की डीलिंग भी नहीं है कि ‘‘ ओ बादशाहो, तुसी बस थोड़ी जई रणनीत्ति, थोड़ी डिग्री-डुगरी, थोड़ी इनफार्मेशन, थोड़ी फ़िलॉस्फी पाओ, तिन दिन विच तसलीम्मा बणाके त्वाडे हथ विच दे दांगे। अज-कल ते भतेरे लोग बणवा रए ने। गल्फ विच साडी सिस्टर कंसर्न हैगी, ओदर वी दो-तिन्न बणा के दित्तीयां ने। बड़ी डिमांड हैगी बाऊजी, हर संपादुक आपणी निजी तसलीम्मा चांदा ए। वेखणा बाऊजी, एक दिन्न एन्नीयां तसलीम्मा बजार विच उतार दांगे कि लोग असली तसलीम्मा नू भुल्ल जाणगे।’’ (‘‘साहिबान, आप बस थोड़ी-सी रणनीति, थोड़ी डिग्रीयां, थोड़ी सूचनाएं, थोड़ा दर्शन डालिए। तीन दिन में तसलीमा बनाकर आपके हाथ में दे देंगे। आज-कल तो बहुत लोग बनवा रहे हैं। गल्फ़ में हमारी सिस्टर कन्सर्न है, वहां भी दो-तीन बनाकर दी हैं। बहुत डिमांड है बाऊ जी, हर संपादक अपनी निजी तसलीमा चाहता है। देखना बाऊजी, एक दिन इतनी तसलीमाएं बाज़ार में उतार देंगे कि लोग असली तसलीमा को भूल जाएंगे।’’)
अच्छा माफ कीजिएगा, धर्म जब आप फ़िल्म-लिंकित-हृदयों के लिए सिर्फ एक रणनीति है फिर तसलीमा से इतना गुस्सा खाने का मतलब और मक़सद !? फ़िर तो दोनों एक ही बिरादरी के हुए ना !
पर मुश्किल यह है कि तसलीमा से आपकी घृणा छुपाए नहीं छुपती।
परफेक्ट बदल
यह क्या होता है ? और बिना इसे आज़माए आप स्टंट-फिल्म-लिंकित-हृदयों को पता कैसे चलता है कि यह परफेक्ट नहीं है ! क्या आपको लगता है कि दुनिया में आज जितनी भी व्यवस्थाएं लागू हैं सब एक ही बार में ‘परफेक्ट’ बना कर लागू कर दी गयीं थीं !?
नास्तिक और धर्म-विमुख
इशारों में दो-चार नास्तिकों की बात करके आपने ‘सिद्ध’ कर दिया कि नास्तिक भी स्त्री का शोषण करते हैं अतः यह ऑप्शन यहीं ख़त्म ! ऐसा ही करतब आपने पिछली क़िस्तों में पश्चिमी पुरुषों को लेकर कर दिखाया है। आप नास्तिकों से चमत्कार की उम्मीद क्यों रखते हैं ? इनमें से भी बहुत से आस्तिकों के घरों में पले-बढ़े होते हैं। बहुत से किन्हीं राजनीतिक दलों के संपर्क में आ जाने के चलते नास्तिक ‘बन’ गए होते हैं। फिर आप तो आंकड़ा और शोध-पसंद, सरलीकरण के विरोधी, फिल्मी-हृदय हैं। मैंने सुना है कि आप लोग कुछ परसेंटेज वगैरह निकाला करते हैं कि फलां समाज में नास्तिकों का प्रतिशत इतना है, फलां देश में इतना है। नास्तिकों में स्त्री-शोषकों का प्रतिशत इतना है, वगैरह। अपने ही सिद्धांतों के खिलाफ तो मत जाईए !
आप एक बार अगर अपने बारे में भी बता दें कि आप नास्तिक हैं, आस्तिक हैं, धर्म-प्रमुख हैं, विमुख हैं या कुछ और हैं तो आगे से आपको समझने में आसानी रहेगी। चलिए, छोड़िए। समझिए कि मेरी रणनीति थी।
आपकी पितृसत्ता
कई बार आपने कहा कि स्त्री-समस्याओं के लिए इस्लाम नहीं पितृसत्ता या दूसरे धर्म ज़िम्मेदार है। सवाल यह उठता है कि जिस वक्त ‘पवित्र ग्रंथ’ लिखे गए उस वक्त पितृसत्ता थी या मातृसत्ता ! लिखने वाला इंसान था या कोई अदृश्य शक्ति ? अगर इंसान ने लिखे तो सबको मालूम है कि इंसान की अपनी सीमाएं हैं और वह ग़लतियां करता है। सुघारता भी है। जो न सुधारने पे अड़ जाए, उसे क्या कहें ? अगर अदृश्य शक्ति ने ग्रंथ लिखे तो उसे पता होना ही चाहिए था कि भविष्य में पितृसत्ता भी होनी है और दूसरे धर्म भी। सो दूरदर्शिता तो यही होती कि धर्म ग्रंथ इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए लिखे जाते।
आपका युटोपिया
सारे मुसलमान अपने सारे काम-धंधे छोड़कर पहले अरबी सीखें। फिर कुरान पढ़ें। क्या गारंटी है कि अरबी सीखने के बाद भी कुरान के वे वही अर्थ पकड़ पाएंगे जो लिखने वाले ने लिखे ! जो नहीं समझेंगे वे किसकी मदद लेंगे ? मुल्ला-मौलवियों की या आपकी ! दूसरे लोग और दूसरे धर्म कैसे पता लगाएंगे कि आप लोग उन्हें सही अर्थ बता रहे हैं !? यानि कि वे भी अरबी सीखें और कुरान पड़ें। कितने सौ साल लगेगें इसमें ? यह युटोपिया है कि उसके भी पितामह !?
आपकी तर्कप्रणाली
कृष्णबिहारी का आपने बिना नाम लिए जवाब दिया और उन पर संघी होने का अप्रत्यक्ष आरोप भी लगा दिया। उनकी मूल आपत्ति का जवाब आज तक नहीं दिया कि दूसरे देशों में बुरक़ा कहां से आया। मैं समझता हूं कि कृष्णबिहारी का बड़प्पन है कि बदले में उन्होंने आप पर तालिबानी आतंकवादी, पाक़िस्तानी जासूस या इस्लाम प्रचारक होने का आरोप नहीं लगाया। बहुत ख़ूब तर्क प्रणाली है कि नाम लिए बिना आधा-अधूरा जवाब दो और नुक्ते जैसी कुछ ग़लती निकालकर अगले का पूरा विचार खारिज़ कर दो। जैसा कि इकबाल हिंदुस्तानी नामक पत्र लेखक के साथ किया गया।
(इस प्रसंग का बाक़ी हिस्सा एक रणनीति के तहत सुरक्षित।)
किसी को संघी, पंथी या तालिबानी बता देना कोई तर्क या जवाब है क्या ?
बच्चों को ऐसा करते तो देखा भी था। बहस के नाम पर चलाए जा रहे कालम में बहस से बचने की हर तरकीब करने से पाठकों को क्या संदेश मिलेगा आखि़र ?
आपकी भाषा
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स्त्रियों से संवाद की आपकी समस्या
शाह बानो का हवाला देकर आपने जो समस्या और तत्काल पश्चात जो समाधान बताए, उन्हें फिलहाल अपनी एक रणनीति के तौर पर मैं स्वीकार कर लेता हूं। आपको मेरी एक सलाह है। जिन स्त्रियों को आप संबोधित कर रहे हैं, (वे जहां कहीं भी संबोधित हो रहीं हों) उन्हें चार पुरुषों की कामना के क़िस्से और स्त्री की भिन्न-भिन्न पुरुषों से शारीरिक संतुष्टि के तुलनात्मक अध्ययन वाले हिस्से संप्रेषित न करें (शौहर को दुनियावी ख़ुदा समझने वाली औरतों-मात्र को संबोधित कालम में ऐसी बातें ! तौबा ! तौबा !)। मुझे नहीं लगता कि इतने विराधाभासी विचार एक साथ अनपढ़ और धार्मिक स्त्रियां भी झेल पाएंगीं। कोई लफड़ा न खड़ा हो जाए ! और अगर चार पुरुषों वाले आयडियाज़ वे स्त्रियां बर्दाश्त कर सकतीं हैं तो आपकी ज़रुरत ही क्या है ! तसलीमा पहले ही सब कुछ कह गयीं हैं। और अगर मामला वैसा ही है जैसा आप कह रहे हैं और आपको वाकई उन स्त्रियों की चिंता है तो मेरी एक और सलाह है, माइंड मत कीजिएगा। मुझे नहीं लगता उन स्त्रिओं ने ‘हंस’ का नाम भी सुना होगा (यादव जी क्षमा करें)। कहीं एक साल बेकार न चला गया हो। मुझे लगता है वे स्त्रियां उन्हीं दुकानों से लाकर वही क़िताबें पढ़ती होंगीं जो आप टीवी में मेरे प्रिय एंकर रवीश कुमार को दिखा रहे थे। आप वैसी ही साज-सज्जा में अपने लेख छपवाकर उन दुकानों में रखवाईए, लोग ज़रुर पढ़ेंगे आपको। जावेद अख्तर तक को फतवा मिल गया पर आपके इतने हंगामें के बाद भी किसी ने दो शब्द न बोले। ब्लाग पर भी एक-दो लड़कियां लिख रहीं हैं आपसे मिलते-जुलते विषयों पर। एक कट्टरपंथ लानत-मलामत कर रहा है तो दूसरा समर्थन कर रहा है। कुछ ऐसे ‘सरफिरे’ युवा हौसला भी बढ़ा रहे हैं जो तसलीमा की ही तरह सब धर्मों को एक ही ठेंगे पर रखते हैं। आपको तो ब्लॉग पर भी शायद ऐसा वाक़या पेश नहीं आया। हो सकता है आपको मुल्ला-मौलवी भी सीरियसली श्रद्धापूर्वक लें। प्रयोग करने में क्या हर्ज़ है ?
विवाह संस्था से मुक्त कराएं !
वैसे एकाध सवाल से कन्नी काटने की इजाज़त अपन को भी नहीं होनी चाहिए क्या ? अपन चलते हैं। पर रणनीति !? क्यों भई, आप फ़िल्मी हृदय ऐसा क्यों चाहते है कि जो लड़कियां विवाह करना चाहती हैं उन्हें भी विवाह न करने दें हम ! अब क्या ‘प्रगतिशील खाप पंचायतें’ लगवाने का इरादा है !? यह क्या हुआ ? कौन-सा मानवाधिकार हुआ यह ? राइट टू इनफॉर्मेशन है ? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ? क्या है यह ? मेरी तो पूरी नालेज ही जवाब दे रही है। अरे, आपने कहा होता कि जो लड़कियां शादी नहीं करना चाहतीं, उनका साथ देकर दिखाएं । तब तो अपना सोचना भी बनता था। आपने तो सवाल ही उल्टा फेंक दिया। वैसे अपन पाठकों का भी पूछना बनता है कि आपने लिखने के अलावा, स्त्री-मुक्ति के संदर्भ में, ऐसे कौन-से क्रांतिकारी फैसले लिए हैं और उनपर अमल किया है ज़िंदगी में, कि आपके लेखन को गाल-वादन न माना जाए !?
आपका गाल-वादन विशिष्ट क्यों ?
क्या सिर्फ इसलिए कि आप को तीन पन्ने मिले हुए हैं और अपन (यानि वे पाठक-लेखक जिन्हें ‘अपना मोर्चा’ और ‘बीच बहस में’ पहुंचने तक के लिए ड्रिबलिंग करनी पड़ रही है) को छपन तक के लाले हैं !? यह तो कोई बहुत लोकतांत्रिक एप्रोच नहीं मालूम होती ! राजसत्ता की तानाशाही टाइप लगती है। और कोई फ़र्क़ हो तो बताएं। इसी लिखे को आप सेमिनार में बोलने या भाषण देने को गाल-वादन से ऊपर की कोई चीज़ मानना चाहें तो यह आपकी ‘बुनियादी समझ’ है। वैसे नेता लोग भी भाषण देने को दूर-दराज़ के बीहड़ इलाकों में जाकर धूप में पसीना निकालते हैं। आइंदा उन्हें गलियाने से पहले तनिक सोचा जाए !
अपनी रणनीति
बिलकुल साफ है कि जब कोई कॉलमिस्ट बिना नाम लिए सवाल या आरोप दागेगा तभी जवाब देंगे, सिर्फ कॉलमिस्ट को। बाक़ी किसी से अपन को कोई मतलब नहीं।
अपन चलते हैं। पीछे संपादक जी जानें, कॉलमिस्ट जानें, वे स्त्रियां जानें। इससे ज़्यादा रिपीटाबाज़ी अपने बस की नहीं।
दुष्यंत के एक शेर का मलीदा पेश है:
हंगामा हो, ना भी हो, हमको लेना-देना क्या-
हंगामें की कहके, अपना नाम होना चाहिए।
वैसे कुछ नादान ऐसे भी होते हैं जो कहते हैं:
हंगामा है क्यूं बरपा, थोड़ी-सी जो पी ली है !
ज़ाहिर है इनमें ‘बुनियादी समझ’ नहीं होती।
-संजय ग्रोवर
शुक्रवार, 11 जून 2010
....तो आएगी किस दिन क़यामत पता हो
ग़ज़ल
क्यूं करते हैं मेहनत ये नीयत पता हो
बीमारों की असली तबीयत पता हो
तुम्हे गर मेरे सच की जुर्रत पता हो
तो आएगी किस दिन क़यामत पता हो
पिता सर पे, पलकों पे माँ को रखेंगे
बशत्र्ते कि उनकी वसीयत पता हो
क्या तोड़ोगे आईना, कुचलोगे चेहरा?
करोगे भी क्या गर हक़ीकत पता हो
वो इज़हारे-उल्फ़त संभलकर करें, गर
जो है होने वाली वो ज़िल्लत पता हो
-संजय ग्रोवर
(‘द सण्डे पोस्ट, सहित्य वार्षिकी में प्रकाशित)
सोमवार, 7 जून 2010
कन्फ़्यूज़न में रणनीति है या रणनीति में कन्फ़्यूज़न !?
हंस के मई अंक में मेरा एक लेख है। यह अंक नेट पर आज, लगभग एक महीना देर से अवतरित हुआ है। वजह तकनीकी रहीं होंगीं। यह लेख हंस के कालम की कुछ बातों पर प्रतिवाद-स्वरुप है। अभी एक मित्र ने फोन पर कहा कि इसे ब्लाग पर लगाकर किसकी चर्चा चाहते हो-कालम की या अपनी !? बहरहाल, मैं इसका अगला भाग और छापकर अपनी तरफ़ से क़िस्सा ख़त्म करुंगा क्यों कि क्रिया-प्रतिक्रियाओं की भाषा लगातार छिछली हो रही है और (कालमिस्ट की मंशा जो भी रही हो )मामला महिला-मुक्ति से ज़्यादा दूसरे झगड़ों पर केंद्रित होता चला जा रहा लग रहा है।
(‘हंस’ में स्पेस की मारा-मारी के चलते जो कुछ एडिट हुआ या करना पड़ा, उसका भी कुछ हिस्सा यहां आ गया है। )
कन्फ़्यूज़न में रणनीति है या रणनीति में कन्फ़्यूज़न !?
यादवजी, मान लीजिए आप सड़क पर जा रहे हैं। देखते हैं कि एक आदमी, दूसरे के पेट में छुरा घोंपने वाला है, आपकी पहुंच के दायरे में है। आप छुरे वाला हाथ पकड़ लेते हैं। तभी वह आदमी पूछता है कि कौन जात-धरम हो भाई ? आप कहते हैं हिंदू हूँ या इंसान हूँ या नास्तिक हूँ। जवाब आता है कि कुरान पढ़ा है कभी ? शरियत जानते हो। तुम्हे क्या पता कि क्या जायज़ है और क्या नाजायज़ ? जाओ पहले पढ़के आओ ! यादवजी, क्या आप उसका हाथ छोड़कर कुरान पढ़ने जाएंगे या ‘सब धान बाईस पंसेरी’ ही करना ठीक समझेंगे !?
यादवजी, मान लीजिए आप मुस्लिम हैं। घर में कोई बीमार है। डॉक्टर ने भी बोल दिया है कि शोर-शराबे से दूर ही रखिए नहीं तो पागल भी हो सकता है। ऊपर के फ्लोर पर ढोल-मंजीरों वाला कोई धार्मिक आयोजन चल रहा है। आपकी नसें फट पड़ने को हो रही हैं। आप ऊपर जाकर प्रार्थना करते हैं कि भाई मेरा बच्चा मर जाएगा, पागल हो जाएगा, शोर कुछ कम कर लो। प्रत्युत्तर है कि पहले सारे धर्मग्रंथ पढ़ लो फ़िर आना ऊंगली उठाने।
मान लीजिए कि तालिबान और मुल्ला-मौलवी किसी तरह यह सिद्ध कर देते हैं कि वे जो कर रहे हैं वही कुरान और शरियत में लिखा है और वही सही है तो ? तो क्या शीबा मुस्लिम स्त्रियों की मुक्ति के लिए अपने प्रयासों को छोड़ कर बुरक़ा पहन लेंगी और मैदान छोड़ देंगीं ? अगर छोड़ देंगी और सभी ऐसा करने लगेंगे तो क्या इस दुनिया में किसी गैलीलियो के लिए कभी जगह रह पाएगी ! जो चर्च आज उनसे माफ़ी मांग रहा है वही कल फ़िर उनकी छाती पर चढ़ दौड़ेगा। मेरी मूल आपत्ति हर बीमारी का इलाज धर्मग्रंथों में ढूंढने को लेकर है। फिर शीबा नया क्या कर रही हैं ? सभी एडजस्टमेंटवादी, कंफ्यूज़्ड और मीडिओकर भी तो यही करते हैं। कि नहीं ग्रंथों में तो सब कुछ अच्छा-अच्छा लिखा था पर कोई बीच में आकर गड़बड़ कर गया। मज़े की बात यह है कि हर धर्म के कट्टरपंथी भी बीच-बीच में यही तर्क देते हैं। कौन है भाई यह ‘गड़बड़िया’ जो आए दिन ग्रंथों में गड़बड़ करता है और आप पकड़ नहीं पाते। जबकि आधी से ज़्यादा दुनिया पहरेदारी में लगी है। और अगर आप पकड़ नहीं पाते तो गड़बड़ तो रुकने से रही। आप सिद्ध कैसे करेंगे कि मूल ग्रंथ कौन-सा था !? क्या इसका कोई प्रामाणिक तरीका भी है !?
अगर इस्लाम में इतना ही ख़ुलापन है तो शीबा को यह कॉलम एक हिंदी पत्रिका में क्यों लिखना पड़ रहा है ? क्या सारे उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में मुल्ला-मौलवी और तालिबान घुसे बैठे हैं ? और क्या राजेंद्र यादव को यह खुलापन इस्लाम से मिला है !? वे तो आज भी इसको पढ़ने को तैयार नहीं। अगर इस्लाम में सारी समस्याओं के हल है तो शीबा बताएं कि वहां क्लोनिंग के बारे में क्या लिखा है ? टेस्ट ट्यूब बेबी के बारे में क्या है ? सेरोगेट मदर के बारे में क्या है ? कंप्यूटर और इण्टरनेट के बारे में क्या है ? समलैंगिकता, ओरल, एनल, वोकल और लोकल सैक्स की बाबत क्या लिखा है ? जब शीबा यह बताएं तो ऐसे वाक्यांशों या अनुवादों के साथ बताएं जिनमें उक्त शब्द सीधे-सीधे आते हों। ज्योतिषियों वाली गोल-मोल भाषा नहीं चलेगी। वरना तो हिंदुत्व में भी सब कुछ निकल आएगा।
एक बार फ़िर (‘हसं’,जनवरी 2010) वे अपने कॉलम का उद्देश्य और रणनीति बताते हुए अंत में कहतीं हैं कि ‘‘इसलिए जिन्हें ‘महिला सबलीकरण’ का एकमात्र रास्ता धर्मविमुख होना लगता है, यह बहस उस वर्ग के लिए नहीं है क्योंकि महिला सबलीकरण मुहिम धर्मविहीनता की ‘युटोपिया’ का इंतज़ार नहीं कर सकती।‘‘
इस तरह बहस के संभावित सबसे बड़े विपक्ष को वे पहले ही बाहर कर देती हैं । फ़िर यह बहस किसके लिए है !? मीडिओकरों और मुल्ला-मौलवियों के लिए !? क्या ये लोग ‘हंस’ पढ़ते हैं ? वे यह बहस मदरसों और मोहल्लों में क्यों नहीं चलातीं !? अगर धर्म-विमुखता युटोपिया है तो धर्म-प्रमुखता भी अंततः हमें ‘बिन-बाल-बुश‘ की बनायी आत्मघाती, निरंकुश, कट्टर और पढ़े-लिखे अनपढ़ों की दुनिया से आगे कहां ला पायी ? वे इसे ‘बीच के लोगों की गड़बड़’ कहेंगी तो मैं भी कहूंगा कि रुस और चीन में भी ‘बीच के लोगों ने गड़बड़’ की थी। सही बात तो यह है कि सही मायने में नास्तिकता का परिचय और परीक्षा तो अभी हुए ही नहीं हैं। हमारे यहां के तो कम्युनिस्ट भी नास्तिकता और मानवता को शरमा-शरमाकर, घबरा-घबराकर अंडरगारमेंट्स की तरह बरतते आ रहे हैं।
नूर ज़हीर और कृष्ण बिहारी ने शीबा की वैचारिक अस्पष्टता की ओर इशारा किया है। ‘हंस’ नवंबर 2009 के अपने लेख ‘...खाने के और दिखाने के और!’ मे शीबा पाठकों के कथनों के सहारे अपनी रणनीति स्पष्ट करने की कोशिश करती हैं ‘इस्लाम को प्रच्छन्न रणनीति के तौर पर इस्तेमाल कर क्या ठीक निशाना साधा है.....’ वगैरह। मगर प्रगतिशीलों, सेक्युलरों और प्रखर नारीवादियों के लिए उनके मुंह से बात-बेबात, बरबस फूट पड़ने वाले ताने और कोसने, सोचने पर मजबूर करते हैं कि रणनीति इससे कहीं ठीक उलट तो नहीं !? यहां तक कि बिना किसी विशेष संदर्भ-प्रसंग के तसलीमा पर फ़ट पड़ती हैं। देखें ‘हंस’, जनवरी 2010 में ‘प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रिया’। उन्हें लगता है कि विरोधी उनसे इसलिए नाराज़ हैं कि वे तसलीमा या ‘हंस में छपने वाली लेखिकाओं’ की तरह यौन-क्रियाओं के सूक्ष्म डिटेल्स नहीं दे रहीं। तसलीमा का नाम आते ही वे इस कदर धैर्य छोड़ बैठती हैं कि भूल जाती हैं कि तसलीमा की प्रसिद्धि की शुरुआत इन ‘डिटेल्स’ से नहीं ‘लज्जा’ से हुई थी। कि ‘यौन-डिटेल्स’ वाली दो-चार आत्मकथात्मक क़िताबें आने से पहले ही तसलीमा ‘औरत के हक़ में’ और ‘उत्ताल हवा’ जैसी कई कृतियों के ज़रिए ख़ासी मशहूर हो चलीं थीं। कि तसलीमा की सोच बिलकुल साफ़ और भाषा एकदम सरल है। इस भाषा में विद्रोही विचारों को प्रकट करना बहुत हिम्मत का काम होता है। हश्र में निर्वासन और पत्थर मिलते हैं। हिंदी साहित्य के तोप-विद्रोही समझे जाने वाले राजेंद्र यादव की भाषा में भी यह सरलता नहीं है। कहां अपनी साफ़ सोच, बेबाक बातों और अपने हर व्यक्तिगत को सार्वजनिक-सामाजिक बना कर दुनिया भर में लड़ती हुई तसलीमा और कहां बात-बात में डरने वाले, दिन में दस बार अपनी बात बदलने वाले और ‘कुछ कहने-कुछ करने’ वाले हम ! तसलीमा के प्रति उनकी ऐसी नफ़रत का कारण सिर्फ़ इतना ही है ! या तसलीमा की ‘धर्म-विमुखता’ भी एक कारण है ? वैसे शीबा अगर स्पष्ट करें कि उनका एतराज़ तसलीमा की यौन-क्रियाओं पर है या उन्हें लिखे जाने पर है तो आगे इस संदर्भ में बहस सही रास्ते पर चल सके।
शीबा की रणनीति पर उनका अपना कन्फ्यूज़न देखना है तो ‘हंस‘, मई 2009 में छपा ‘सब धान बाईस पंसेरी’ पढ़ जाईए। जिसमें राजेद्र यादव द्वारा अपने एक संपादकीय में इस्लाम पर किए ‘हमले’ पर गुस्सा खा जाती हैं। अपनी समझ में यादवजी की ऐसी-तैसी करते हुए वे फ़िल्म ‘ख़ुदा के लिए’ के हवाले से कहती हैं ’‘पर जब मौलाना वली इस्लाम में संगीत, शिक्षा, निकाह में स्त्री की मर्ज़ी, हलाल कमाई, आधुनिक वेशभूषा व वस्त्र आदि को इस्लामी इतिहास, कुरान की व्याख्या व मोहम्मद साहब के जीवन से उदाहरण लेकर सिद्ध करते हैं तो मौलाना ताहिरी के ग़ुब्बारे की हवा निकल जाती है और उसका गुमराह किया नौजवान सरमद उसकी ही मस्ज़िद में जींस-टीशर्ट में अज़ान देकर उसे चुनौती भी दे पाता है।‘‘
चलिए, यह तो हुआ इस्लाम को रणनीति के तौर पर इस्तेमाल किए जाने का मामला। पर यहां शीबा यह भी याद रखें कि इस रणनीति के तहत सरमद ख़ुद कितना भी चाहे पर अज़ान को चुनौती फिर भी नहीं दे सकता। इसे दूसरे कोण से देखें तो नतीजा यह भी निकलता है कि जींस पहनी तो क्या हुआ, करना तो वही सब पड़ा ! एक अपने कबीरदास थे जो बिना जींस पहने ही ‘ता चढ़ मुल्ला बांग दे’ गाते फिरते थे। शीबा यह भी सोचें कि इन रणनीतियों का ज़्यादा फ़ायदा अंततः ‘बिन-बाल-बुश’ को ही तो नहीं हो रहा। अभी कितने हज़ार साल और हम इन रणनीतियों पर कुर्बान करेंगे !? आगे चलें। इसी लेख में वे फिर यादवजी पर कुनमुनाती हैं, ‘आपके संपादकीय का तीसरा विरोधाभास यह है कि आप तुर्की के इस्लाम या इंडोनेशिया के इस्लाम की तारीफ़ भी कर रहे हैं और पूरे विश्व के इस्लाम को एक भी मान रहे हैं। क्या आप यह नहीं देख पाते कि जो क्षेत्र इस्लाम पूर्व की कबीलाई व्यवस्था में जकड़े हैं वहीं पर स्त्रियों पर अत्याचार अधिक हैं।’
यहां फिर वे कुछ-कुछ कट्टरपंथिओं वाला सिरा पकड़ लेती हैं कि दोष इस्लाम में नहीं, इधर-उधर हैं। और अपरोक्ष तरीके से फिर वही बात कि मुक्ति इस्लाम के भीतर ही संभव है। अब हम इसे रणनीति मानें कि कट्टर आस्था !? आगे कहती हैं कि ‘राजेंद्र जी, काश धर्म के प्रति आपकी झुंझलाहट और गुस्सा, आपको और गहरे अध्ययन व विश्लेषण की ओर प्रेरित कर पाता।’ क्या धर्म को रणनीति की तरह इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति इसके प्रति गुस्सा और झुंझलाहट रखने वाले व्यक्ति को इसके अध्ययन के लिए कहेगा !? उसके भीतर तो ख़ुद यह झुंझलाहट होनी चाहिए। इस्लाम के प्रति यह श्रद्धा भाव इस पूरे लेख में आपको दिखाई देगा। लेकिन जहां उन्हें मुफ़ीद लगता है वे इसे रणनीति भी करार दे देतीं हैं। ऐसे विरोधाभास उनके कॉलम में कई जगह हैं। एक ही लेख में ज़्यादा लिखा तो संभव है वे मुझे भी कॉलम का दुश्मन और किसी कट्टर धार्मिक संगठन का आदमी बता दें। काहिल, जाहिल और झूठ का पुलिंदा बता दें।
-संजय ग्रोवर
(‘हंस’ में स्पेस की मारा-मारी के चलते जो कुछ एडिट हुआ या करना पड़ा, उसका भी कुछ हिस्सा यहां आ गया है। )
कन्फ़्यूज़न में रणनीति है या रणनीति में कन्फ़्यूज़न !?
यादवजी, मान लीजिए आप सड़क पर जा रहे हैं। देखते हैं कि एक आदमी, दूसरे के पेट में छुरा घोंपने वाला है, आपकी पहुंच के दायरे में है। आप छुरे वाला हाथ पकड़ लेते हैं। तभी वह आदमी पूछता है कि कौन जात-धरम हो भाई ? आप कहते हैं हिंदू हूँ या इंसान हूँ या नास्तिक हूँ। जवाब आता है कि कुरान पढ़ा है कभी ? शरियत जानते हो। तुम्हे क्या पता कि क्या जायज़ है और क्या नाजायज़ ? जाओ पहले पढ़के आओ ! यादवजी, क्या आप उसका हाथ छोड़कर कुरान पढ़ने जाएंगे या ‘सब धान बाईस पंसेरी’ ही करना ठीक समझेंगे !?
यादवजी, मान लीजिए आप मुस्लिम हैं। घर में कोई बीमार है। डॉक्टर ने भी बोल दिया है कि शोर-शराबे से दूर ही रखिए नहीं तो पागल भी हो सकता है। ऊपर के फ्लोर पर ढोल-मंजीरों वाला कोई धार्मिक आयोजन चल रहा है। आपकी नसें फट पड़ने को हो रही हैं। आप ऊपर जाकर प्रार्थना करते हैं कि भाई मेरा बच्चा मर जाएगा, पागल हो जाएगा, शोर कुछ कम कर लो। प्रत्युत्तर है कि पहले सारे धर्मग्रंथ पढ़ लो फ़िर आना ऊंगली उठाने।
मान लीजिए कि तालिबान और मुल्ला-मौलवी किसी तरह यह सिद्ध कर देते हैं कि वे जो कर रहे हैं वही कुरान और शरियत में लिखा है और वही सही है तो ? तो क्या शीबा मुस्लिम स्त्रियों की मुक्ति के लिए अपने प्रयासों को छोड़ कर बुरक़ा पहन लेंगी और मैदान छोड़ देंगीं ? अगर छोड़ देंगी और सभी ऐसा करने लगेंगे तो क्या इस दुनिया में किसी गैलीलियो के लिए कभी जगह रह पाएगी ! जो चर्च आज उनसे माफ़ी मांग रहा है वही कल फ़िर उनकी छाती पर चढ़ दौड़ेगा। मेरी मूल आपत्ति हर बीमारी का इलाज धर्मग्रंथों में ढूंढने को लेकर है। फिर शीबा नया क्या कर रही हैं ? सभी एडजस्टमेंटवादी, कंफ्यूज़्ड और मीडिओकर भी तो यही करते हैं। कि नहीं ग्रंथों में तो सब कुछ अच्छा-अच्छा लिखा था पर कोई बीच में आकर गड़बड़ कर गया। मज़े की बात यह है कि हर धर्म के कट्टरपंथी भी बीच-बीच में यही तर्क देते हैं। कौन है भाई यह ‘गड़बड़िया’ जो आए दिन ग्रंथों में गड़बड़ करता है और आप पकड़ नहीं पाते। जबकि आधी से ज़्यादा दुनिया पहरेदारी में लगी है। और अगर आप पकड़ नहीं पाते तो गड़बड़ तो रुकने से रही। आप सिद्ध कैसे करेंगे कि मूल ग्रंथ कौन-सा था !? क्या इसका कोई प्रामाणिक तरीका भी है !?
अगर इस्लाम में इतना ही ख़ुलापन है तो शीबा को यह कॉलम एक हिंदी पत्रिका में क्यों लिखना पड़ रहा है ? क्या सारे उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में मुल्ला-मौलवी और तालिबान घुसे बैठे हैं ? और क्या राजेंद्र यादव को यह खुलापन इस्लाम से मिला है !? वे तो आज भी इसको पढ़ने को तैयार नहीं। अगर इस्लाम में सारी समस्याओं के हल है तो शीबा बताएं कि वहां क्लोनिंग के बारे में क्या लिखा है ? टेस्ट ट्यूब बेबी के बारे में क्या है ? सेरोगेट मदर के बारे में क्या है ? कंप्यूटर और इण्टरनेट के बारे में क्या है ? समलैंगिकता, ओरल, एनल, वोकल और लोकल सैक्स की बाबत क्या लिखा है ? जब शीबा यह बताएं तो ऐसे वाक्यांशों या अनुवादों के साथ बताएं जिनमें उक्त शब्द सीधे-सीधे आते हों। ज्योतिषियों वाली गोल-मोल भाषा नहीं चलेगी। वरना तो हिंदुत्व में भी सब कुछ निकल आएगा।
एक बार फ़िर (‘हसं’,जनवरी 2010) वे अपने कॉलम का उद्देश्य और रणनीति बताते हुए अंत में कहतीं हैं कि ‘‘इसलिए जिन्हें ‘महिला सबलीकरण’ का एकमात्र रास्ता धर्मविमुख होना लगता है, यह बहस उस वर्ग के लिए नहीं है क्योंकि महिला सबलीकरण मुहिम धर्मविहीनता की ‘युटोपिया’ का इंतज़ार नहीं कर सकती।‘‘
इस तरह बहस के संभावित सबसे बड़े विपक्ष को वे पहले ही बाहर कर देती हैं । फ़िर यह बहस किसके लिए है !? मीडिओकरों और मुल्ला-मौलवियों के लिए !? क्या ये लोग ‘हंस’ पढ़ते हैं ? वे यह बहस मदरसों और मोहल्लों में क्यों नहीं चलातीं !? अगर धर्म-विमुखता युटोपिया है तो धर्म-प्रमुखता भी अंततः हमें ‘बिन-बाल-बुश‘ की बनायी आत्मघाती, निरंकुश, कट्टर और पढ़े-लिखे अनपढ़ों की दुनिया से आगे कहां ला पायी ? वे इसे ‘बीच के लोगों की गड़बड़’ कहेंगी तो मैं भी कहूंगा कि रुस और चीन में भी ‘बीच के लोगों ने गड़बड़’ की थी। सही बात तो यह है कि सही मायने में नास्तिकता का परिचय और परीक्षा तो अभी हुए ही नहीं हैं। हमारे यहां के तो कम्युनिस्ट भी नास्तिकता और मानवता को शरमा-शरमाकर, घबरा-घबराकर अंडरगारमेंट्स की तरह बरतते आ रहे हैं।
नूर ज़हीर और कृष्ण बिहारी ने शीबा की वैचारिक अस्पष्टता की ओर इशारा किया है। ‘हंस’ नवंबर 2009 के अपने लेख ‘...खाने के और दिखाने के और!’ मे शीबा पाठकों के कथनों के सहारे अपनी रणनीति स्पष्ट करने की कोशिश करती हैं ‘इस्लाम को प्रच्छन्न रणनीति के तौर पर इस्तेमाल कर क्या ठीक निशाना साधा है.....’ वगैरह। मगर प्रगतिशीलों, सेक्युलरों और प्रखर नारीवादियों के लिए उनके मुंह से बात-बेबात, बरबस फूट पड़ने वाले ताने और कोसने, सोचने पर मजबूर करते हैं कि रणनीति इससे कहीं ठीक उलट तो नहीं !? यहां तक कि बिना किसी विशेष संदर्भ-प्रसंग के तसलीमा पर फ़ट पड़ती हैं। देखें ‘हंस’, जनवरी 2010 में ‘प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रिया’। उन्हें लगता है कि विरोधी उनसे इसलिए नाराज़ हैं कि वे तसलीमा या ‘हंस में छपने वाली लेखिकाओं’ की तरह यौन-क्रियाओं के सूक्ष्म डिटेल्स नहीं दे रहीं। तसलीमा का नाम आते ही वे इस कदर धैर्य छोड़ बैठती हैं कि भूल जाती हैं कि तसलीमा की प्रसिद्धि की शुरुआत इन ‘डिटेल्स’ से नहीं ‘लज्जा’ से हुई थी। कि ‘यौन-डिटेल्स’ वाली दो-चार आत्मकथात्मक क़िताबें आने से पहले ही तसलीमा ‘औरत के हक़ में’ और ‘उत्ताल हवा’ जैसी कई कृतियों के ज़रिए ख़ासी मशहूर हो चलीं थीं। कि तसलीमा की सोच बिलकुल साफ़ और भाषा एकदम सरल है। इस भाषा में विद्रोही विचारों को प्रकट करना बहुत हिम्मत का काम होता है। हश्र में निर्वासन और पत्थर मिलते हैं। हिंदी साहित्य के तोप-विद्रोही समझे जाने वाले राजेंद्र यादव की भाषा में भी यह सरलता नहीं है। कहां अपनी साफ़ सोच, बेबाक बातों और अपने हर व्यक्तिगत को सार्वजनिक-सामाजिक बना कर दुनिया भर में लड़ती हुई तसलीमा और कहां बात-बात में डरने वाले, दिन में दस बार अपनी बात बदलने वाले और ‘कुछ कहने-कुछ करने’ वाले हम ! तसलीमा के प्रति उनकी ऐसी नफ़रत का कारण सिर्फ़ इतना ही है ! या तसलीमा की ‘धर्म-विमुखता’ भी एक कारण है ? वैसे शीबा अगर स्पष्ट करें कि उनका एतराज़ तसलीमा की यौन-क्रियाओं पर है या उन्हें लिखे जाने पर है तो आगे इस संदर्भ में बहस सही रास्ते पर चल सके।
शीबा की रणनीति पर उनका अपना कन्फ्यूज़न देखना है तो ‘हंस‘, मई 2009 में छपा ‘सब धान बाईस पंसेरी’ पढ़ जाईए। जिसमें राजेद्र यादव द्वारा अपने एक संपादकीय में इस्लाम पर किए ‘हमले’ पर गुस्सा खा जाती हैं। अपनी समझ में यादवजी की ऐसी-तैसी करते हुए वे फ़िल्म ‘ख़ुदा के लिए’ के हवाले से कहती हैं ’‘पर जब मौलाना वली इस्लाम में संगीत, शिक्षा, निकाह में स्त्री की मर्ज़ी, हलाल कमाई, आधुनिक वेशभूषा व वस्त्र आदि को इस्लामी इतिहास, कुरान की व्याख्या व मोहम्मद साहब के जीवन से उदाहरण लेकर सिद्ध करते हैं तो मौलाना ताहिरी के ग़ुब्बारे की हवा निकल जाती है और उसका गुमराह किया नौजवान सरमद उसकी ही मस्ज़िद में जींस-टीशर्ट में अज़ान देकर उसे चुनौती भी दे पाता है।‘‘
चलिए, यह तो हुआ इस्लाम को रणनीति के तौर पर इस्तेमाल किए जाने का मामला। पर यहां शीबा यह भी याद रखें कि इस रणनीति के तहत सरमद ख़ुद कितना भी चाहे पर अज़ान को चुनौती फिर भी नहीं दे सकता। इसे दूसरे कोण से देखें तो नतीजा यह भी निकलता है कि जींस पहनी तो क्या हुआ, करना तो वही सब पड़ा ! एक अपने कबीरदास थे जो बिना जींस पहने ही ‘ता चढ़ मुल्ला बांग दे’ गाते फिरते थे। शीबा यह भी सोचें कि इन रणनीतियों का ज़्यादा फ़ायदा अंततः ‘बिन-बाल-बुश’ को ही तो नहीं हो रहा। अभी कितने हज़ार साल और हम इन रणनीतियों पर कुर्बान करेंगे !? आगे चलें। इसी लेख में वे फिर यादवजी पर कुनमुनाती हैं, ‘आपके संपादकीय का तीसरा विरोधाभास यह है कि आप तुर्की के इस्लाम या इंडोनेशिया के इस्लाम की तारीफ़ भी कर रहे हैं और पूरे विश्व के इस्लाम को एक भी मान रहे हैं। क्या आप यह नहीं देख पाते कि जो क्षेत्र इस्लाम पूर्व की कबीलाई व्यवस्था में जकड़े हैं वहीं पर स्त्रियों पर अत्याचार अधिक हैं।’
यहां फिर वे कुछ-कुछ कट्टरपंथिओं वाला सिरा पकड़ लेती हैं कि दोष इस्लाम में नहीं, इधर-उधर हैं। और अपरोक्ष तरीके से फिर वही बात कि मुक्ति इस्लाम के भीतर ही संभव है। अब हम इसे रणनीति मानें कि कट्टर आस्था !? आगे कहती हैं कि ‘राजेंद्र जी, काश धर्म के प्रति आपकी झुंझलाहट और गुस्सा, आपको और गहरे अध्ययन व विश्लेषण की ओर प्रेरित कर पाता।’ क्या धर्म को रणनीति की तरह इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति इसके प्रति गुस्सा और झुंझलाहट रखने वाले व्यक्ति को इसके अध्ययन के लिए कहेगा !? उसके भीतर तो ख़ुद यह झुंझलाहट होनी चाहिए। इस्लाम के प्रति यह श्रद्धा भाव इस पूरे लेख में आपको दिखाई देगा। लेकिन जहां उन्हें मुफ़ीद लगता है वे इसे रणनीति भी करार दे देतीं हैं। ऐसे विरोधाभास उनके कॉलम में कई जगह हैं। एक ही लेख में ज़्यादा लिखा तो संभव है वे मुझे भी कॉलम का दुश्मन और किसी कट्टर धार्मिक संगठन का आदमी बता दें। काहिल, जाहिल और झूठ का पुलिंदा बता दें।
-संजय ग्रोवर
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