शनिवार, 22 मई 2010

मोहरा, अफवाहें फैला कर....

ग़ज़लें

1.
मोहरा, अफवाहें फैला कर
बात करे क्या आँख मिला कर

औरत को माँ-बहिन कहेगा
लेकिन, थोड़ा आँख दबाकर

पर्वत को राई कर देगा
अपने तिल का ताड़ बना कर

वक्त है उसका, यारी कर ले
यार मेरे कुछ तो समझा कर

ख़ुदको ही कुछ समझ न आया
जब बाहर निकला समझा कर

(http://www.anubhuti-hindi.org/ में प्रकाशित)

2.

मेरी हंसी उड़ाओ बाबा
अपना दुःख बिसराओ बाबा

पहले मुझको समझ तो लो तुम
फिर समझाने आओ बाबा

मैं इक ज़िन्दा ताजमहल हूँ
आँखों में दिल लाओ बाबा

सच माफ़िक ना आता हो तो
अफ़वाहें फैलाओ बाबा

आग दूर तक फ़ैलानी है
दिल को और जलाओ बाबा

उपर वाला थक कर सोया
ज़ोर से मत चिल्लाओ बाबा

फिर आया ग़ज़लों का मौसम
फिर दिल की कह जाओ बाबा


(दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित)


-संजय ग्रोवर

सोमवार, 17 मई 2010

चालू

लघुकथा










चालू

उन्होंने जाल फेंका।
शिकार किसी तरह बच निकला।
यूं समझिए कि ख़ाकसार किसी तरह बच निकला।
भन्ना गए। सर पर दोहत्थड़ मारकर बोले, ‘‘तुम तो कहते थे भोला है। देखो तो सही साला कितना चालू आदमी है।’


-संजय ग्रोवर

मंगलवार, 11 मई 2010

पुरूष की मुट्ठी में बंद है नारी-मुक्ति की उक्ति-2

पहला भाग


शब्दों को छोड़कर आइए अब ज़रा विज्ञापन की दुनिया का जायज़ा लें । नारी शरीरों की निर्वस्त्रता पर नारी संगठन और संस्कृतिदार पुरूष अपना विरोध कई तरह से प्रकट करते आए हैं व कर रहे हैं । मगर, कई बैंको और फाइनेंस कंपनियों के दर्जनों ऐसे विज्ञापन पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टीवी पर देखने-सुनने-पढ़ने को मिलते हैं, जिनमें प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से दहेज व अन्य स्त्री विरोधी कुप्रथाओं को बढ़ावा दिया जाता है ।

फिल्मों में देखिए । वहां भी यही हाल है । हमारा नायक अक्सर बहन, बेटी या पड़ोसन के लिए कहीं-न-कहीं से दहेज जुटाकर समस्या की जड़ में जाने की बजाय उसे टालने में अपनी सार्थकता समझता है । इक्का-दुक्का फिल्मों में ही लालची वर-पक्ष को दुत्कार कर किसी आदर्श पुरूष से कन्या का विवाह करने के उदाहरण देखने को मिलते हैं । मुझे याद नहीं कि कभी किसी नारी संगठन ने ऐसे विज्ञापनों या ऐसी फिल्मों का विरोध किया हो । स्त्री का आंचल पौन इंच भर ढलक जाने पर हाय-तौबा मचाने वाले सभ्यजनों को उक्त दृश्यों का विरोध करने के नाम पर क्यों सांप सूंघ जाता है ? क्या कभी किसी नारी संगठन का ध्यान इस ओर नहीं गया कि फिल्मों में किस तरह नारी के अंतर्वस्त्र ब्रेज़ियर को मज़ाक की वस्तु बनाया जाता रहा है (ताजा उदाहरण दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे) । नारी का अंतर्वस्त्र आखिर हास्य का साधन क्यों और कैसे हो सकता है ? क्या यह सोच अश्लील और विकृत नहीं है ?

इसके अलावा कई फिल्मों में दिखाया जाता है कि नायक नायिका के कम कपड़ों पर ऐतराज करता है और उसके भावुकतापूर्ण भाषण से प्रभावित होकर नायिका तुरंत अगले ही दृश्य में साड़ी में लिपटी दिखाई देती है । मगर, अगले गाने में ही वह नायक के साथ ही, और भी कम, लगभग नाममात्र के वस्त्रों में नायक से लिपटती-चिपटती और कामुकतापूर्ण झटके मारती दिखाई पड़ती है । तब न तो नायक ऐतराज करता है, न दर्शक बुरा मानते हैं । एक अन्य आम दृश्य में नायक द्वारा शरीर की मांग करने पर नायिका अपनी सभ्यता-संस्कृति को लेकर लंबा-चैड़ा भाषण देती है । तब नायक प्रभावित होता है और दोनों में ‘सच्चा प्रेम’ हो जाता है । अगले गाने में वे लगभग वस्त्रहीन नाचने लगते हैं । अब तक नायिका तो अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूल ही चुकी होती है, दर्शक भी इसको लगभग धार्मिक फिल्म की ही तरह श्रद्वापूर्वक देखने लगते हैं । ज्यादातर फिल्मों में, नायक अक्सर कई दूसरी स्त्रियों के साथ लिपटता-चिपटता रहता है और नायिका अकेली पड़ी उसका इंतजार करती रहती है । जिन दूसरी स्त्रियों के साथ नायक लगभग केलिक्रीड़ा जैसे दृश्य प्रस्तुत करता है, क्या वे किसी की बहन-बेटियां नहीं होतीं ?

क्या हमारी सभ्यता-संस्कृति यही कहती है कि बस अपनी मां-बहन-बेटी को ही कै़द में बंद कर दो और फिर बाकी सभी स्त्रियों को अपनी जायदाद समझो । इन दृश्यों को देखकर हमारे धर्मध्वजियों व नारी संगठनों के माथे पर शिकन तक नहीं आती । उक्त तीनों नियमित दृश्यों में मौजूद विरोधाभास ही इस साज़िश की पोल खोल देते हैं कि किस तरह सभ्यता, संस्कृति, परिवार, धर्म आदि बडे़-बडे़ शब्दों की आड़ में स्त्री को गुलाम बनाए रखने की चालाकी खेली जा रही है । दिलचस्प बात यह है कि परिवार, मर्यादा इत्यादि का सारा ठेका देवी स्त्री को दिया गया है और दुनिया भर के अच्छे-बुरे सभी आनंद लेने की ’ज़िम्मेदारी ’देवता पुरूष को दी गई है ।
नारी मुक्ति के संदर्भ में एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि बहुत से पुरूष यह मानते और कहते हैं कि नारी तो मुक्त हो चुकी । अब बचा क्या है । वह नौकरी करती है, घूमती है, खाती-पीती है, फिल्म देखती है । पुलिस में, हवाई जहाज में, पानी के जहाज़ पर काम करती है अर्थात् पुरूष के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है । ज़ाहिर है कि पुरूष इसे पूर्ण मुक्ति के संदर्भ में देखने की बजाय उसकी पूर्व स्थिति की तुलना में बेहतर वर्तमान स्थिति को देखकर यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं । पहली बात तो यह है कि जब भी होगी नारी मुक्ति पुरूष वर्चस्व पर सिर्फ प्रतिक्रिया मात्र नहीं होगी । हां, जब नारी पुरूष से मुक्त हो जाएगी, तब ही वह अपने लिए वास्तविक मुक्ति की तलाश और कोशिश शुरू कर पाएगी। और इस प्रक्रिया में अभी खासा लंबा समय लगने वाला है ।

फिर भी, यहां हम पुरुष की तुलना में नारी की सही स्थिति को जानने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। क्या नारी आज भी अकेली फिल्म देखने जा सकती है? क्या वह पुरुष की तरह बेधड़क पार्क में घूम सकती है? क्या वह किसी अजनबी शहर में कमरा लेकर अकेली रह सकती है? क्या वह लड़कों की तरह बेतकल्लुफी से अपनी मित्रों के गले में हाथ डाले ‘हा हा हू हू’ करते हुए शहर की सड़कों-चौराहों पर घूम सकती है? क्या तपती-सुलगती गर्मी में पुरुष की ही तरह स्त्री भी वस्त्र उतार कर दो-घड़ी चैन की सांस ले सकती है? उक्त में से कोई भी कार्य करने पर समाज द्वारा उसे चालू, चरित्रहीन, वेश्या, सनकी, पागल या संदिग्ध-चरित्र करार दे दिए जाने की पूरी-पूरी संभावना है। सुनने-पढने में यह सब अटपटा, अजीब या अश्लील लग सकता है। मगर स्त्री भी उसी हांड़-मांस की इंसान है और बिलकुल पुरुष की तरह ही उसकी भी इच्छाएं और तकलीफें हैं। वह कोई मशीन या जानवर नहीं है, जिस पर सर्दी-गर्मी का कोई असर ही न होता हो।

मगर प्रतिक्रियावाद हमेशा ही अपने साथ कई विसंगतियों को भी लाता है। ऐसी ही एक ख़तरनाक विसंगति है यह कहा जाना कि ‘तुम स्त्री होकर भी स्त्री का विरोध करती हो’। यह एक नए किस्म का जातिवाद है। स्त्री भी एक इंसान है और पुरुष की तरह वह भी कभी सही तो कभी ग़लत होगी ही, मगर हम हमेशा नई-नई जातियां या वर्ण गढ़ते रहते हैं। यथा डाॅक्टर हमेशा डाॅक्टर को सही कहे, व्यंग्यकार व्यंग्यकारों पर व्यंग्य न लिखें, पत्रकार एकता ज़िन्दाबाद, दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ, दलित दलित को ग़लत न कहें, वगैरहा-वगैरहा। पहले ही जाति, धर्म, संप्रदाय आदि के झगड़ों ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। मगर हम हैं कि मानते ही नहीं।
स्त्री की मुक्ति के साथ-साथ हमारे सामाजिक-नैतिक मानदंडों, साहित्यिक प्रतिबद्धताओं, कला संबंधी प्रतिमानों सहित हर क्षेत्र में इतने बड़े पैमाने पर बदलाव आ जाएंगे, जिसका फिलहाल हमें ठीक से अंदाज़ा भी नहीं है। हो सकता है कि आने वाले समय में हमें यह जानने को मिले कि जिसे हम स्त्री का स्वभाव समझ रहे थे, उसमें से अधिकांश उस पर जबरन थोपा गया था। ‘लोग क्या कहेंगे’ या ‘समाज क्या कहेगा’ आदि डरों की वजह से इन प्रक्रियाओं में अनुपस्थित रहने के बजाय हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपने विवेक और तर्कबुद्धि से ही इस बाबत निर्णय लेने होंगे। इतिहास गवाह है कि जो लोग इन सामाजिक परिवर्तनों और सुधारों को धर्म व शास्त्र विरुद्ध कहकर इनकी आलोचना करते हैं, बदलाव आ चुकने और समाज के बहुलांश द्वारा इन्हें अपना चुकने के बाद वही लोग अगुआ बनकर इसका ‘क्रेडिट’ लेने की कोशिश भी करते हैं। विरोध, आलोचना और अकेले पड़ जाने के डर से अगर सभी चिंतक अपने चिंतन और उस पर पहलक़दमी करने के इरादों को कूड़े की टोकरी में डालते आए होते तो आदमी आज भी बंदर बना पेड़ों पर कूद रहा होता।

-संजय ग्रोवर


(समाप्त)

पहला भाग

{7 मार्च 1997 को अमरउजाला (रुपायन) में प्रकाशित}

गुरुवार, 6 मई 2010

पुरूष की मुट्ठी में बंद है नारी-मुक्ति की उक्ति-1


प्रशंसा सुनकर गद-गद होना या झूठी तारीफ सुनकर दूसरों का काम तुरत-फुरत कर देना-एक ऐसी कमजोरी है, जो ज्यादातर लोगों में पाई जाती है । मगर जिस वर्ग को इस विधि से सर्वाधिक छला गया है, वो है-स्त्री वर्ग । सुंदर और मोटे-मोटे शब्दों का जाल बिछाकर स्त्री को इस तरह फंसाया गया है कि इस जाल को स्त्रियों ने अपनी नियति ही मान लिया है । मगर आश्चर्य और दुःख की बात तो यह है कि इस सदियों पुराने भारी-भरकम शब्दजाल मे फंसी अधिकांश स्त्रियां, खुद को गौरवान्वित महसूस करती हैं । यहां तक तो गनीमत है, मगर जब यही स्त्रियां, आजादी की ख्वाहिश-मंद और इसके लिए प्रयासरत कुछ दूसरी, थोड़ी-सी, साहसी महिलाओं को तरह-तरह से रोकने की, उनके नैतिक साहस को डिगाने की, उन पर उलजुलूल, मनगढंत लांछन लगाकर उनका चरित्र-हनन करने कोशिश करती हैं, तो उनका यह कृत्य आपत्तिजनक, निंदनीय व व्यक्तिगत आजादी पर हमला तो होता ही है, साथ ही पुरूषवादी समाज के अमानुषिक, तानाशाह तौर-तरीकों को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा भी देता है । इज्जत, शील, मर्यादा, ममता, लज्जा आदि कितने ही ऐसे शब्द हैं, जो वर्षो से स्त्री को भरमाते आए हैं । ये शब्द और स्त्री संदर्भो में इनके प्रचालित अर्थ इस भयावह सचाई को बताते हैं कि महज चंद शब्दों की आड़ में एक बड़ी भीड़ का कितनी आसानी से शोषण किया जा सकता है । एक स्त्री व एक पुरूष विवाह से पहले या विवाह के बिना अगर संभोग कर लेते हैं, तो हमारा समाज व साहित्य बांग लगाता है कि हाय, बेचारी स्त्री का शील भंग हो गया । अब पूछिए इनसे कि ‘शील’ नामक इस सम्मान (?) से सिर्फ स्त्री को ही क्यों नवाजा गया है ? क्या पुरूष का ‘शील’ नहीं होता ?
एक अन्य उदाहरण में जब स्त्री के साथ बलात्कार होता है तो जबरन किए जाने वाले इस कृत्य के लिए बलात्कार एकदम उपयुक्त शब्द होता है । मगर, इससे सामाजिक संप्रभुओं का मतलब हल नहीं होता । सो वे कहते हैं कि स्त्री की इज्जत लुट गई, अस्मत लुट गई । कितनी हास्यास्पद है यह अलंकृत भाषा । जैसे कि आपके घर में डाका पडे़ और बजाय डाकुओं के हंसी भी आपकी ही उड़ाई जाए । आप शर्म के मारे घर से ही न निकलें, थाने में रिपोर्ट कराने न जाएं कि सब हंसेगे आप पर । लोग संदेहपूर्ण नज़रों से देखेंगे आपको कि आपके घर में डाका पड़ा, तो गलती भी आपकी रही होगी, आप ही चरित्रहीन होंगे ।
ऐसा ही एक और शब्द है ममता । इसका प्रचलित अर्थ है मां को अपने बच्चों (दरअसल बेटों) के लिए बेशर्त प्यार । यहां तक तो गनीमत है । अगर अधिकांश स्त्रियां अपने बच्चों पर ममता लुटाती हैं और उन्हें बच्चे पैदा करने और उन्हंे पालने में आनंद आता है तो निश्चय ही यह उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है और किसी को उन्हें रोकने का कोई हक नहीं है । मगर, जब यही स्त्रियां और समाज इस मातृत्व को जबरन किसी पर थोपने की कोशिश करते हैं और उसके इनकार करने पर उसे असामान्य करार देते हैं, चरित्रहीन करार देते हैं, तो निश्चय ही यह आपतिजनक है । व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला है । अगर कुछ स्त्रियां मातृत्व से इनकार कर रही हैं तो यह कैसे कहा ज सकता है कि हर स्त्री मां बनना चाहती है । सिर्फ पुरानी धारणाओं या ‘आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ जैसी उक्तियों पर जीती-जागती स्त्रियों और उनके सपनों को बलि चढ़ा देने का हक किसे हो और क्यों हो । कैसी विडंबना है कि एक कुंवारी स्त्री अगर अपनी मर्ज़ी से मां बनती है या बनना चाहती तो उसे भी सताया जाता है । और शादीशुदा स्त्री माँ नहीं बनना चाहती तो उसे तो प्रताड़ित किया ही जाता है। प्रंसगवश पंजाबी लेखिका अजीत कौर के उपन्यास ‘गौरी’ से कुछ पंक्तियां उद्धृत करना उपयोगी होगा-’ममता का भी वैसे कुछ ज्यादा ही आडंबर रचा हुआ है कवियों-ववियों ने । ममता कोई पहाड़ी झरना नहीं होता कि एक बार धारा फूटी तो बस बहती ही चली जाएगी । ममता भी शेष मानवी भावनाओं की तरह रोज़-रोज़ पानी देकर सींचने-पालने वाली चीज़ है । नहीं तो सूख जाती है यह भी ।’
फिर कुछ और शब्द हैं । स्त्री देवी है, मां-बहन और बेटी है । भारतीय संदर्भो में स्त्री की दुर्दशा को देखते हुए उसे देवी कहा जाना बिल्कुल ऐसा ही है जैसे कि एक मुहावरे के अनुसार किसी को पोदीने के पेड़ पर चढ़ाकर उससे अपना काम निकलवा लेना । बार-बार स्त्री को मां-बहन-बेटी कहते रहने में जो अर्थ छुपा है, उसकी धुरी भी पुरूष है । निहितार्थ इसके भी यही हैं कि वो पुरूष की मां, बहन और बेटी है । उसकी परवरिश, सुरक्षा या परवाह चूकि पुरूष को ही करनी है, अतः हर मामले में उसे अनुमति या सलाह भी पुरूष से ही लेनी चाहिए । इस कारक ने भी स्त्री को बौद्विक या मानसिक रूप से अपंग बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाई है । अगर ऐसा न होता तो अकसर हमें यह भी सुनने को मिलता कि ‘पुरूष हमारा भाई है, बेटा है, देवता है, इसलिए उसे हमें घर में, एक कोने में संभालकर रखना चाहिए । स्त्री को देवी कहने वाला समाज वास्तव में उसे क्या मानता है, इसका पता हमें इसी बात से चल जाता है कि हमारे यहां प्रचलित लगभग सभी गालियां स्त्री को लक्ष्य करके कही गयी हैं। स्त्री की वास्तविक हैसियत बताने वाले ऐसे कितने ही शब्द हैं । जैसे अर्धान्गिनी । निहितार्थ है पुरूष का आधा भाग, वो भी अनिवार्य रूपेण स्त्री ही, क्योंकि पुरूष को तो ‘अर्धान्गिना’ हम कहते नहीं ।

-संजय ग्रोवर

{7 मार्च 1997 को अमरउजाला (रुपायन) में प्रकाशित}

(जारी)

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देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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