देवियो और सज्जनो, मैं भगवान बच्चन इस ब्लॉग पर भी आपका स्वागत करता हूं। आप तो जानते ही हैं मैं अत्यंत सभ्य और भद्र एक्टर हूं। इंसान भी हूं।
‘कौन बनेगा ख्रोरपाती’ भी मैं ऐसे पेश करता था जैसे क्लास ले रहा होंऊ । हांलांकि मैं सबको सर-सर कहता था पर प्रतिभागी और दर्शक बच्चों की तरह डरे-डरे अनुशासित पड़े बैठे रहते थे।
अभिनय वह है जिसमें भगवान बच्चन, भगवान बच्चन लगे और फ़िलिप कुमार, फ़िलिप कुमार। मुझे बहुत अजीब लगता है जब पंकज काफ़ूर ‘मीन का पेड़’ में बुधैया लगने लगते हैं और ‘करमूचंद’ में करमूचंद। मोम पुरी मोम की तरह पिघल कर रोल में घुस जाते हैं। अरे, वो क्या एक्टर हुआ जिसका कोई स्टाइल ही न हो ! ऐक्टिंग तो सभी कर लेते हैं। पर मेरी ख़ासियत यह है कि आप मुझे कुली का रोल दे दो चाहे बहादुर शाह जफ़र का, मैं हर रोल में भगवान बच्चन ही लगता हूं। मुझे मिर्ज़ा ग़ालिब बनाओ चाहे बाबा लंगड़दीन। मैंने एक कंधा टेढ़ा रखना है तो रखना है। अरे, वो ऐक्टर ही क्या जो चरित्र निभाने के चक्कर में अपना वजूद खो दे ! स्टाइल छोड़ दे ! फ़िल्म और विज्ञापन निर्माता पैसे मुझे स्टाइल के देते हैं या ऐक्टिंग के ! चलिए आप ही बताईए आप मुझे स्टाइल की वजह से पसंद करते हैं या ऐक्टिंग की ! ज़्यादा मत सोचना ! गड़बड़ होगी और पचनौला खाना पड़ेगा। हैंइ। (बताईए स्टाइल है या ऐक्टिंग)
हीरोइनें मेरी फ़िल्मों में गेंद या बिगड़ी घोड़ी की तरह आती-जातीं हैं। मैं या तो उन्हें बल्ले की तरह बाउंड्री के पार पहुंचाता रहा हूं या ट्रेनर की तरह सुधारता-सिखाता रहा हूं। हांलांकि एंग्री-युवा-छवि-मैन रहा और पीट-पीठकर लोगों को और सिस्टम को सुधारता रहा हूं मगर फ़िर भी हिरोइन को हाथ कम ही लगाया। लगाया भी तो उसी की भलाई के लिए। तालियां। अपने लिए मैंने कभी कुछ नहीं किया। वैसे भी हमारे यहां सभी सब कुछ समाज के लिए करते हैं। इत्ती मात्रा में सामाजिक प्राणी होने पर भी हमारे समाज की हालत खस्ता ही रहती है। न जाने क्यूं !? इस पर भी तालियां।
बुरा हो संजय पीला धंसवाली और पाजी पापाजी जैसों का कि बुढ़ापे मे एक्टिंग-वेक्टिंग के लफ़ड़े में फंसा दिया। अच्छा-खासा बूम में झूम रहा था। भले चीनी को थोड़ा कम चूम रहा था। पर नि:शब्द ही सही, शोर के आस-पास तो घूम रहा था। कुछ फ़िल्में स्त्री-स्वातंत्रय की समर्थक होते हुए भी पुरुषों का ही स्कोप बनाती हैं। और बुड्ढे की जान लोगे क्या !?
इधर गरम पाजी से लेकर काफ़ूर खानदान तक की लड़कियां परंपराएं तोड़-फ़ोड़ कर ऐक्टिंग में हाथ-पैर आज़मा रहीं हैं। मगर सभ्यता-संस्कृति पर मेरी देसी पकड़ देखिए कि मेरी पत्नी-बेटी-बहू में से भी कुछ फ़िल्मों में हुआ करती थीं। अब वे हैं भी और नहीं भी हैं। आए भी वो गए भी वो। राजेंद्र वैधव की पत्नी एकदम सामाजिक मुद्दा है मगर मेरी एकदम व्यक्तिगत। इत्ते दर्शक ऐसे ही थोड़े मुझपर मरते है। जानता हूं कि हमारे लोग हाथी-दांत प्रगतिशीलता ही पसंद करते हैं।
परंपराएं मैंने भी कुछ कम नहीं तोड़ी। मनोरंजन और पापुलैरिटी के लिए ‘आ वारिस’ में हिजड़े के रोल में भी नाचा हूं। हां, अगर हिजड़ों की समस्या पर फ़िल्म बनानी हो तो उसके लिए दूजा भट्ट वगैरह हैं ना।
तो देवियो और सज्जनो, मैं हूं भगवान बच्चन। मुझपर कंकर भी फेंकना हो तो मेरी तरह सभ्य भाषा में लपेटकर फेंको। नही तो मेरे भक्तगण आपको कच्चा चबा जाएंगे।
हैंइ।
-संजय ग्रोवर
‘कौन बनेगा ख्रोरपाती’ भी मैं ऐसे पेश करता था जैसे क्लास ले रहा होंऊ । हांलांकि मैं सबको सर-सर कहता था पर प्रतिभागी और दर्शक बच्चों की तरह डरे-डरे अनुशासित पड़े बैठे रहते थे।
अभिनय वह है जिसमें भगवान बच्चन, भगवान बच्चन लगे और फ़िलिप कुमार, फ़िलिप कुमार। मुझे बहुत अजीब लगता है जब पंकज काफ़ूर ‘मीन का पेड़’ में बुधैया लगने लगते हैं और ‘करमूचंद’ में करमूचंद। मोम पुरी मोम की तरह पिघल कर रोल में घुस जाते हैं। अरे, वो क्या एक्टर हुआ जिसका कोई स्टाइल ही न हो ! ऐक्टिंग तो सभी कर लेते हैं। पर मेरी ख़ासियत यह है कि आप मुझे कुली का रोल दे दो चाहे बहादुर शाह जफ़र का, मैं हर रोल में भगवान बच्चन ही लगता हूं। मुझे मिर्ज़ा ग़ालिब बनाओ चाहे बाबा लंगड़दीन। मैंने एक कंधा टेढ़ा रखना है तो रखना है। अरे, वो ऐक्टर ही क्या जो चरित्र निभाने के चक्कर में अपना वजूद खो दे ! स्टाइल छोड़ दे ! फ़िल्म और विज्ञापन निर्माता पैसे मुझे स्टाइल के देते हैं या ऐक्टिंग के ! चलिए आप ही बताईए आप मुझे स्टाइल की वजह से पसंद करते हैं या ऐक्टिंग की ! ज़्यादा मत सोचना ! गड़बड़ होगी और पचनौला खाना पड़ेगा। हैंइ। (बताईए स्टाइल है या ऐक्टिंग)
हीरोइनें मेरी फ़िल्मों में गेंद या बिगड़ी घोड़ी की तरह आती-जातीं हैं। मैं या तो उन्हें बल्ले की तरह बाउंड्री के पार पहुंचाता रहा हूं या ट्रेनर की तरह सुधारता-सिखाता रहा हूं। हांलांकि एंग्री-युवा-छवि-मैन रहा और पीट-पीठकर लोगों को और सिस्टम को सुधारता रहा हूं मगर फ़िर भी हिरोइन को हाथ कम ही लगाया। लगाया भी तो उसी की भलाई के लिए। तालियां। अपने लिए मैंने कभी कुछ नहीं किया। वैसे भी हमारे यहां सभी सब कुछ समाज के लिए करते हैं। इत्ती मात्रा में सामाजिक प्राणी होने पर भी हमारे समाज की हालत खस्ता ही रहती है। न जाने क्यूं !? इस पर भी तालियां।
बुरा हो संजय पीला धंसवाली और पाजी पापाजी जैसों का कि बुढ़ापे मे एक्टिंग-वेक्टिंग के लफ़ड़े में फंसा दिया। अच्छा-खासा बूम में झूम रहा था। भले चीनी को थोड़ा कम चूम रहा था। पर नि:शब्द ही सही, शोर के आस-पास तो घूम रहा था। कुछ फ़िल्में स्त्री-स्वातंत्रय की समर्थक होते हुए भी पुरुषों का ही स्कोप बनाती हैं। और बुड्ढे की जान लोगे क्या !?
इधर गरम पाजी से लेकर काफ़ूर खानदान तक की लड़कियां परंपराएं तोड़-फ़ोड़ कर ऐक्टिंग में हाथ-पैर आज़मा रहीं हैं। मगर सभ्यता-संस्कृति पर मेरी देसी पकड़ देखिए कि मेरी पत्नी-बेटी-बहू में से भी कुछ फ़िल्मों में हुआ करती थीं। अब वे हैं भी और नहीं भी हैं। आए भी वो गए भी वो। राजेंद्र वैधव की पत्नी एकदम सामाजिक मुद्दा है मगर मेरी एकदम व्यक्तिगत। इत्ते दर्शक ऐसे ही थोड़े मुझपर मरते है। जानता हूं कि हमारे लोग हाथी-दांत प्रगतिशीलता ही पसंद करते हैं।
परंपराएं मैंने भी कुछ कम नहीं तोड़ी। मनोरंजन और पापुलैरिटी के लिए ‘आ वारिस’ में हिजड़े के रोल में भी नाचा हूं। हां, अगर हिजड़ों की समस्या पर फ़िल्म बनानी हो तो उसके लिए दूजा भट्ट वगैरह हैं ना।
तो देवियो और सज्जनो, मैं हूं भगवान बच्चन। मुझपर कंकर भी फेंकना हो तो मेरी तरह सभ्य भाषा में लपेटकर फेंको। नही तो मेरे भक्तगण आपको कच्चा चबा जाएंगे।
हैंइ।
-संजय ग्रोवर