गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

‘व्यंग्य-कक्ष’ में *****लोग क्या कहेंगे*****

सरल कुमार पूर्वाग्रहों से रहित एक सरल स्वभाव का आदमी था। जैसे कि दूसरे रंगों के पहनता था वैसे ही एक दिन उसने नारंगी कपड़े पहन लिए। लोग बोले कि वह फलां दल में शामिल हो गया है। सरल कुमार ने हैरान और परेशान होकर हरे रंग के कपड़े पहन लिए तो लोग कहने लगे कि देखो, पट्ठा अब ढिकां दल में शामिल हो गया है, दल बदलू कहीं का। सरल कुमार ने बाल छोटे करवा लिए। लोग बोले कि बीमार लग रहे हो। सरल कुमार ने लम्बे बाल कर लिए। लोग बोले क्या लड़कियों जैसा हुलिया बना रखा है। ज्यादा हीरो बनता है। सरल कुमार ने पहले जैसे कर लिए, न बड़े न छोटे। लोग बोले कि साला वोई का वोई रहा। इस की जिंदगी में कभी कोई चेन्ज नहीं आ सकता। सरल कुमार धीमे-धीमे सीधी चाल चला। लोग बोले जनानिया है। सरल कुमार तन के चला। लोग कहने लगे कि साले की अकड़ तो देखो। ऐसी काया और कैसी चाल। एक दिन ठोंक दो ससुर को तब मानेगा।
सरल कुमार ने विनम्रता से बात की। लोग बोले कि घुग्घू है पट्ठा। बिलकुल भौंदू। कुछ नहीं कर पाएगा ज़िन्दगी भर। सरल कुमार ने दबंग आवाज में, स्पष्ट शब्दों में, ईमानदारी और गंभीरता से अपनी बात को कहा। लोग कहने लगे कि कितना क्रैक आदमी है। सनकी पागल। अपना-पराया नहीं देखता। किसी का लिहाज नहीं करता। साला ईमानदारी के गटर में सड़-सड़ के मरेगा। सरल कुमार ने गुस्सा खा कर एक दिन लोगों को खरी-खरी सुना दी। लोग बोले कि देखो कितना दुष्ट है। एकदम लुच्चा और गुण्डा। साफ मुंह पर कह देता है।
सरल कुमार दिन-रात काम में जुट गया। लोग बोले कि पैसे के पीछे पागल है। सरल कुमार ने थोड़ा वक्त मौज-मस्ती के लिए निकालना शुरू कर दिया। लोग बोले कि निकम्मा है, अय्याश है, हरामखाऊ है। सरल कुमार ने एक जगह नौकरी कर ली। लोग बोले कि बेचारा, इतना बोझ तो नहीं था घर वालों पर कि नौकरी को मजबूर कर दिया। सरल कुमार लड़कियों को नहीं देखता था। लोग कहते थे कि झेंपू है, दम निकलता है, पसीने छूटते है। सरल कुमार कन्याओं को घूरने लगा। लोग बोले कि लुच्चा और लफंगा है कमीना। एक नम्बर का शोहदा। सरल कुमार ने कहा शादी नहीं करूंगा। लोगों में से एक बोला कि नामर्द होगा साला। दूसरा बोला ज्यादा ब्रहम्चारी बनता है।
तीसरा बोला समाज-सेवा का भूत चढ़ा है जनाब को। चैथा बोला आज़ाद पंछी है भई। पांचवां बोला कि ऐसे ही काम चला लेता होगा इधर-उधर से। छठा बोला कि नाकाम इश्क का मारा लगता है। सरल कुमार ने घोषणा की कि शादी करूंगा। लोग बोले कि हम तो पहले ही कहते थे। शुरू-शुरू में तो सब नखरे दिखाते हैं। बिना शादी के कुछ करना कोई इस के बस की बात थी?
सरल कुमार अकेला जा रहा था। लोगों ने कहा कि कोई नहीं पूछता साले को। सरल कुमार मित्र-मंडली के साथ घूम रहा था। लोग बोले कि इसका बस यही काम है। हर समय आवारा लोगों के साथ घूमना, मटरगश्ती करना। सरल कुमार ने अपने हक़ के लिए आवाज उठाई। लोग बोले कि बड़ा नेता बनता है। सरल कुमार चुपचाप रहने लगा। लोग बोले नपुंसक कहीं का।
सरल कुमार ने अपना सिर धुन लिया, माथा पीट लिया, करम ठोंक लिए। लोग बोले कि हम तुम्हारे साथ हैं, चिन्ता मत करो। सब ठीक हो जाएगा। सरल कुमार हंस पड़ा। लोग कहने लगे कि कैसा बेशर्म है, दांत फाड़े जा रहा है।
आखिर सरल कुमार करे तो करे क्या कि लोग उससे कुछ न कहें? अगर आप के पास कोई सुझाव हो तो मुझे भेज दें, मैं सरल कुमार तक पहुंचा दूंगा।
इस दौरान यह शेर पढ़िए:
कुछ लोग थे कि वक्त के सांचे में ढल गए!
कुछ लोग हैं कि वक्त के सांचे बदल गए!!
-संजय ग्रोवर
(24 मई, 1996 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)

शनिवार, 20 दिसंबर 2008

क्या कुछ और भी है कि जिसकी पर्दादारी है..........

अभी रात की तो बात है कि एन.डी.टी.वी.इण्डिया पर हेमंत करकरे का इण्टरव्यू देखकर हटा हूँ। सुबह हर चैनल पर हाहाकार मचा है। पता चलता है कि जो उच्चाधिकारी पहले-पहल शिकार हो गए उनमें हेमंत करकरे भी थे। आपको याद हो तो ए.टी.एस. की जांच में जो राज़ खुले उनमें एक यह भी था कि ले.कर्नल प्रसाद पुरोहित को आर. डी. एक्स. की सप्लाई कश्मीर के किसी गिलानी से मिल रही थी।
आगे चलें। यानि कि थोड़ा पीछे जाएं।
जिस दिन तहलका नानावती आयोग की रपट के बाद अपने स्टिंग आॅपरेशन को लेकर एक प्रेस-कान्फ्रेंस कर रहा होता है उसी दिन दिल्ली के एक बाज़ार में दो आतंकवादी मोटर-बाइक पर आकर बम फेंक देते हैं। तहलका की प्रेस-काॅन्फ्रेंस उस में धुल जाती है।
थोड़ा और पीछे जाएं।
एक दिन देव-मूर्तियां दूध पीने लगती हैं। दूसरे दिन समुद्र का पानी मीठा हो जाता है। तीसरे दिन मरियम की आँखों से आँसू बहने लगते हैं।
थोड़ा विश्लेषण करें।
एक कहता है कि बाबरी मस्जिद गिरी इसलिए 93 के दंगे हुए। दूसरा कहता है कि गोधरा हुआ इसलिए गुजरात हुआ।
एक कट्टरपंथ से ही दूसरा कट्टरपंथ जस्टीफाई होता है।
एक के रहने से ही दूसरे की ‘दुकान’ चलती है।
एक कट्टरपंथ नहीं होगा तो दूसरा क्या कहकर अपना औचित्य सिद्ध करेगा ?
अगर पाकिस्तान और मुसलमान ख़त्म हो जाएं तो बहुत सारे कट्टर हिंदुओं के तो ‘रोज़गार’ ही छिन जाएंगे। यही हाल हिन्दुस्तान के साथ होने पर पाकिस्तानी कठमुल्लों का होगा।
विभिन्न धर्मों के राजनेताओं के गठजोड़ तो ‘देव’ और ‘फ़िज़ा’ जैसी नई-पुरानी फ़िल्मों में दिखाए जा चुके हैं।
पर कट्टरमुल्लाओं का क्या ?
कट्टरपंथी और कठमुल्ला को जोड़कर यह (कट्टरमुल्ला) शब्द बनाया है। जिससे कि मुझे कोई धर्मविशेष का पक्षधर न समझ ले।
तो क्या एक संभावना यह भी हो सकती है कि कट्टरमुल्लाओं का कोई अंतर्राष्ट्रीय गठजोड़ हो जो कभी-कभी एक-दूसरे से हाथ मिलाकर भी काम कर लेता हो!
क्या कट्टरपंथी ऐसे ही सारी दुनिया को तबाह करते जाएंगे।
अगर हमें सचमुच देश की और मानवता की चिंता है तो हमें इन सवालों से भी दो-चार होना चाहिए।
अगर हमें सिर्फ नारेबाज़ी, अफ़वाहबाज़ी, तोड़-फोड़ और षड्यंत्रबाज़ी ही करनी है तो बात और है।
-संजय ग्रोवर

रविवार, 14 दिसंबर 2008

‘व्यंग्य-कक्ष’ में ‘‘ईश्वर किसे पुकारे’’

ईश्वर किसे पुकारे
फिलहाल मैं इस बहस में नहीं पड़ूँगा कि ईश्वर है या नहीं! क्योंकि ईश्वर के अस्तित्व को नकार दूँगा तो यह व्यंग्य कैसे लिखँूगा? नहीं लिखूँगा तो छपने को क्या भेजूंगा? नहीं भेजूंगा तो पारिश्रमिक कैसे पाऊँगा? नहीं पाऊँगा तो खाऊँगा क्या? तो फिलहाल मान ही लेता हूँ कि ईश्वर है। मित्र नास्तिकराम का तो दावा ही यह है कि ईश्वर का आविष्कार ही उसके नाम पर खाने-कमाने के लिए हुआ है। बहरहाल, अपनी-अपनी समझ है। मुझे क्या! मैं भी तो, स्वार्थवश ही सही, मान ही चुका हँू कि ईश्वर है!‘‘देखिए तो ज़रा, कैसे-कैसे अंधविश्वास आदमी ने जोड़े हैं धर्म और ईश्वर के साथ,’’ नास्तिकराम आहत स्वर में कहता है, ‘‘मगर आर्थिक पक्ष का वहाँ भी पूरा-पूरा ध्यान रखा है। जैसे शनिवार को यह नहीं लाना, मंगल को वह नहीं खाना, बुध को ऐसे नहीं करना, शुक्र को वैसे नहीं करना, सोम को यहाँ नहीं जाना, बृहस्पति को वहाँ से नहीं आना, फलां दिन शेव नहीं करनी, ढिकां दिन प्याज नहीं खाना वगैरहा-वगैरहा। मगर सप्ताह में एक भी दिन बल्कि महीने में एक भी दिन बल्कि साल में एक भी दिन ऐसा नहीं रखा जिसमें रिश्वत लेना निषिद्ध हो, बेईमानी करना मना हो, तिकड़मबाजी़ पर रोक हो, पाखण्ड पर टोक हो, छेड़खानी की मनाही हो, बलात्कार में बुराई हो। तो ऐसे में बेचारे ईश्वर की क्या औक़ात जो एकाध दिन अपने मन की कर ले।’’‘‘यार नास्तिकराम, तुम ईश्वर को नहीं मानते फिर भी तुम्हे उसकी इतनी चिन्ता है!?’’मेरा चैंकना स्वाभाविक था।‘‘ये ही कब मानते हैं,’’नास्तिकराम का आक्र्रोश और बढ़ गया, ‘‘मानने वाले क्या ऐसे होते हैं! क्या बना रखा है इन्होने अपने प्रिय ईश्वर का हाल! बेचारा दिन-रात मंदिर के कोने में पड़ा रहता है। जिसके मन में आता है उसके मुँह में एकाध पेड़ा, चैथाई बरफी, केले का टुकड़ा, पानी मिला दूध ठँूस जाता है। बिना उससे पूछे कि भगवन् आपको भूख भी है या नहीं! सारा दिन एक जगह पड़े-पड़े मीठा खाते रहना, फिर चलना-फिरना तो दूर, हिलने-डुलने तक की मोहलत नहीं! कैसे पचाता होगा ईश्वर इतना मीठा, वो भी बिना हिले-डुले! कोई भक्त यह सोचने का कष्ट नहीं करता कि बिना हिले एक ही जगह बैठे-बैठे खाते-पीते रहने से हमारे प्रिय ईश्वर का पेट खराब हो गया तो! बदहज़मी हो गयी तो! कैसे स्वार्थी भक्त हैं! अपने काम से काम! जब कोई मनोकामना पूरी हुई, चढ़ा दिया सौ-पचास का प्रसाद! मानों ईश्वर न हुआ बिजली-दतर का बाबू हो गया कि जनाब आपने तो हमारा बीस साल से पैंंिडग पचास हजार का बिल पाँच हज़ार में ही निपटवा दिया! इसलिए बचत के पैंतालीस में से यह तुच्छ भेंट आपके लिए।’’ नास्तिकराम बुदबुदाया, ‘‘जैसेकि नहीं दी तो ईश्वर नरक रुपी जेल में ठँूस कर थर्ड डिग्री मार्का यातनाएं देगा, क्या ये तथाकथित भक्त ईश्वर को एक भ्रष्ट पुलिस वाले जैसा समझते हैं कि भैय्या जी-भर कर पाप करो, दिन-भर, बस सुबह-शाम भगवान रुपी कोतवाल को नियम से सिर नवाते रहो, चढ़ावा चढ़ाते रहो तो सात खून माफ। कोई डर नहीं। फिर कैसी चिन्ता।’’मैं सहम गया था। बोला, ‘‘वो सब तो ठीक है नास्तिकराम, मगर तुम्हारी ऐसी बातों से भक्तों की भावनाओं को ठेस भी पहँुच सकती है!’’‘‘क्यों! भावनाएं क्या सिर्फ आस्तिकों की होती हैं! हमारी नहीं!? हम संख्या में कम हैं इसलिए!? दिन-रात जागरण-कीर्तन के लाउड-स्पीकर क्या हमसे पूछकर हमारे कानों पर फोड़े जाते हैं? पार्कों और सड़कों पर कथित धार्मिक मजमे क्या हमसे पूछ कर लगाए जाते हैं? आए दिन कथित धार्मिक प्रवचनों, सीरियलों, फिल्मों और गानों में हमें गालियां दी जाती हैं जिनके पीछे कोई ठोस तर्क, तथ्य या आधार नहीं होता। हमनें तो कभी नहीं किए धरने, तोड़-फोड़, हत्याएं या प्रदर्शन!! हमारी भावनाएं नहीं हैं क्या? हमें ठेस नहीं पहुँचती क्या? पर शायद हम बौद्धिक और मानसिक रुप से उनसे कहीं ज्यादा परिपक्व हैं इसीलिए प्रतिक्रिया में बेहूदी हरकतें नहीं करते।’’मैं सिर झुकाए सुनता रहा।नास्तिकराम बोलता रहा, ‘‘कभी-कभी ईश्वर भी सोचता होगा कि मुझसे अच्छे तो चपरासी और होमगार्ड हैं जिन्हें रिश्वत में कम-अज़-कम सौ-दो-सौ रुपए तो मिलते हैं। मुझे तो भक्तगण मुट्ठी-भर-प्रसाद में टरका जाते हैं।उसमें से भी बूंद-भर ही हिस्से में आ पाता है बाक़ी फिर से बाज़ार में बिकने पहुँच जाता है। मेरे ही बनाए संसार में मेरे ही बनाए आदमी द्वारा कैसी दुर्दशा की जा रही है मेरी! आदमी होता तो मदद के लिए ईश्वर को पुकारता। ईश्वर हूँ तो किसे पुकारुँ? इस चालाक आदमी को पुकारा तो ज़रुर आसमान से गिरा कर खजूर में अटका देगा!’’बड़े बेमन से नास्तिकराम प्रवचन के अंत तक पहुँचा, ‘‘तो जिस दुनिया में भगवान की क़ीमत और हालत ऐसी हो जाए उसमें भगवान का होना-न-होना बराबर हुआ कि नहीं?!’’बहरहाल, नास्तिकराम कुछ भी कहे मैं तो चाहता हूँ कि भगवान का नाम इस दुनिया में हमेशा चलता रहे ताकि लोग उसके साथ व्यंग्यपूर्ण हरकतें करते रहें और मैं उन हरकतों पर व्यंग्य लिख कर नाम और (कभी-कभार) पैसा कमाता रहूँ।
-संजय ग्रोवर
व्यंग्य-संग्रह ‘‘मरा हुआ लेखक सवा लाख का’’ से साभार

देयर वॉज़ अ स्टोर रुम या कि दरवाज़ा-ए-स्टोर रुम....

ख़ुद फंसोगे हमें भी फंसाओगे!

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ढूंढो-ढूंढो रे साजना अपने काम का मलबा.........

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